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श्री सरस्वती चालीसा (Saraswati Chalisa)

॥दोहा॥
 जनक जननि पद्मरज, निज मस्तक पर धरि। 
बन्दौं मातु सरस्वती, बुद्धि बल दे दातारि॥


 पूर्ण जगत में व्याप्त तव, महिमा अमित अनंतु। 
दुष्जनों के पाप को, मातु तु ही अब हन्तु॥ 

जय श्री सकल बुद्धि बलरासी।
जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी॥ 

जय जय जय वीणाकर धारी।
करती सदा सुहंस सवारी॥ 

रूप चतुर्भुज धारी माता।
सकल विश्व अन्दर विख्याता॥ 

जग में पाप बुद्धि जब होती।
तब ही धर्म की फीकी ज्योति॥

 तब ही मातु का निज अवतारी।
पाप हीन करती महतारी॥ 

वाल्मीकिजी थे हत्यारा।
तव प्रसाद जानै संसारा॥ 

रामचरित जो रचे बनाई।
आदि कवि की पदवी पाई॥

 कालिदास जो भये विख्याता।
तेरी कृपा दृष्टि से माता॥ 

तुलसी सूर आदि विद्वाना।
भये और जो ज्ञानी नाना॥

 तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा।
केव कृपा आपकी अम्बा॥

 करहु कृपा सोइ मातु भवानी।
दुखित दीन निज दासहि जानी॥

 पुत्र करहिं अपराध बहूता।
तेहि न धरई चित माता॥ 

राखु लाज जननि अब मेरी।
विनय करउं भांति बहु तेरी॥

 मैं अनाथ तेरी अवलंबा।
कृपा करउ जय जय जगदंबा॥ 

मधुकैटभ जो अति बलवाना।
बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना॥

 समर हजार पाँच में घोरा।
फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा॥

 मातु सहाय कीन्ह तेहि काला।
बुद्धि विपरीत भई खलहाला॥ 

तेहि ते मृत्यु भई खल केरी।
पुरवहु मातु मनोरथ मेरी॥ 

चंड मुण्ड जो थे विख्याता।
क्षण महु संहारे उन माता॥ 

रक्त बीज से समरथ पापी।
सुरमुनि हदय धरा सब काँपी॥ 

काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा।
बारबार बिन वउं जगदंबा॥ 

जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा।
क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा॥ 

भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई।
रामचन्द्र बनवास कराई॥ 

एहिविधि रावण वध तू कीन्हा।
सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा॥

 को समरथ तव यश गुन गाना।
निगम अनादि अनंत बखाना॥ 

विष्णु रुद्र जस कहिन मारी।
जिनकी हो तुम रक्षाकारी॥ 

रक्त दन्तिका और शताक्षी।
नाम अपार है दानव भक्षी॥ 

दुर्गम काज धरा पर कीन्हा।
दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा॥

 दुर्ग आदि हरनी तू माता।
कृपा करहु जब जब सुखदाता॥ 

नृप कोपित को मारन चाहे।
कानन में घेरे मृग नाहे॥ 

सागर मध्य पोत के भंजे।
अति तूफान नहिं कोऊ संगे॥ 

भूत प्रेत बाधा या दुःख में।
हो दरिद्र अथवा संकट में॥ 

नाम जपे मंगल सब होई।
संशय इसमें करई न कोई॥ 

पुत्रहीन जो आतुर भाई।

सबै छांड़ि पूजें एहि भाई॥ 
करै पाठ नित यह चालीसा।

होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा॥ 
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै।

संकट रहित अवश्य हो जावै॥ 

भक्ति मातु की करैं हमेशा।
निकट न आवै ताहि कलेशा॥

 बंदी पाठ करें सत बारा।
बंदी पाश दूर हो सारा॥ 

रामसागर बाँधि हेतु भवानी।
कीजै कृपा दास निज जानी॥

 ॥दोहा 
मातु सूर्य कान्ति तव, अन्धकार मम रूप।
 डूबन से रक्षा करहु परूँ न मैं भव कूप॥ 

बलबुद्धि विद्या देहु मोहि, सुनहु सरस्वती मातु।
 राम सागर अधम को आश्रय तू ही देदातु॥

श्री हनुमान चालीसा (Hanuman Chalisa )

                                                       ।।दोहा।। 
श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार | 
बरनौ रघुवर बिमल जसु , जो दायक फल चारि | 
बुद्धिहीन तनु जानि के , सुमिरौ पवन कुमार | 
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेश विकार || 

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिंहु लोक उजागर | 
रामदूत अतुलित बल धामा अंजनि पुत्र पवन सुत नामा || 

महाबीर बिक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी | 
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कान्हन कुण्डल कुंचित केसा || 

हाथ ब्रज औ ध्वजा विराजे कान्धे मूंज जनेऊ साजे | 
शंकर सुवन केसरी नन्दन तेज प्रताप महा जग बन्दन || 

विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबे को आतुर | 
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया रामलखन सीता मन बसिया || 

सूक्ष्म रूप धरि सियंहि दिखावा बिकट रूप धरि लंक जरावा |
 भीम रूप धरि असुर संहारे रामचन्द्र के काज सवारे || 

लाये सजीवन लखन जियाये श्री रघुबीर हरषि उर लाये | 
रघुपति कीन्हि बहुत बड़ाई तुम मम प्रिय भरत सम भाई || 

सहस बदन तुम्हरो जस गावें अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावें | 
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा ||

 जम कुबेर दिगपाल कहाँ ते कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते | 
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा राम मिलाय राज पद दीन्हा || 

तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना लंकेश्वर भये सब जग जाना | 
जुग सहस्र जोजन पर भानु लील्यो ताहि मधुर फल जानु || 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख मांहि जलधि लाँघ गये अचरज नाहिं | 
दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते || 

राम दुवारे तुम रखवारे होत न आज्ञा बिनु पैसारे | 
सब सुख लहे तुम्हारी सरना तुम रक्षक काहें को डरना || 

आपन तेज सम्हारो आपे तीनों लोक हाँक ते काँपे | 
भूत पिशाच निकट नहीं आवें महाबीर जब नाम सुनावें || 

नासे रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा | 
संकट ते हनुमान छुड़ावें मन क्रम बचन ध्यान जो लावें || 

सब पर राम तपस्वी राजा तिनके काज सकल तुम साजा | 
और मनोरथ जो कोई लावे सोई अमित जीवन फल पावे || 

चारों जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा | 
राम रसायन तुम्हरे पासा सदा रहो रघुपति के दासा || 

तुम्हरे भजन राम को पावें जनम जनम के दुख बिसरावें | 
अन्त काल रघुबर पुर जाई जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई || 

और देवता चित्त न धरई हनुमत सेई सर्व सुख करई | 
संकट कटे मिटे सब पीरा जपत निरन्तर हनुमत बलबीरा || 

जय जय जय हनुमान गोसाईं कृपा करो गुरुदेव की नाईं | 
जो सत बार पाठ कर कोई छूटई बन्दि महासुख होई ||

 जो यह पाठ पढे हनुमान चालीसा होय सिद्धि साखी गौरीसा | 
तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ हृदय मँह डेरा || 

।।दोहा।। 
पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप | 
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ||

श्री गणेश चालीसा (Ganesh Chalisa)

॥दोहा॥ 
जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल।
 विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥ 

जय जय जय गणपति गणराजू। 
मंगल भरण करण शुभ काजू ॥ 

जै गजबदन सदन सुखदाता। 
विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥ 

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।
 तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥ 

राजत मणि मुक्तन उर माला। 
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥ 



पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं । 
मोदक भोग सुगन्धित फूलं ॥ 

सुन्दर पीताम्बर तन साजित । 
चरण पादुका मुनि मन राजित ॥ 

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता ।
 गौरी ललन विश्वविख्याता ॥ 

ऋद्घिसिद्घि तव चंवर सुधारे ।
 मूषक वाहन सोहत द्घारे ॥ 

कहौ जन्म शुभकथा तुम्हारी ।
 अति शुचि पावन मंगलकारी ॥

 एक समय गिरिराज कुमारी ।
 पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी ॥ 

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा । 
तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा ॥ 

अतिथि जानि कै गौरि सुखारी । 
बहुविधि सेवा करी तुम्हारी ॥

 अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा । 
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा ॥ 

मिलहि पुत्र तुहि, बुद्घि विशाला । 
बिना गर्भ धारण, यहि काला ॥ 

गणनायक, गुण ज्ञान निधाना ।
 पूजित प्रथम, रुप भगवाना ॥ 

अस कहि अन्तर्धान रुप है । 
पलना पर बालक स्वरुप है ॥

 बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना। 
लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना ॥ 

सकल मगन, सुखमंगल गावहिं । 
नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं ॥ 

शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं । 
सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं ॥ 

लखि अति आनन्द मंगल साजा ।
 देखन भी आये शनि राजा ॥ 

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं । 
बालक, देखन चाहत नाहीं ॥ 

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो । 
उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो ॥

 कहन लगे शनि, मन सकुचाई । 
का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई ॥ 

नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ ।
 शनि सों बालक देखन कहाऊ ॥ 

पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा ।
 बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा ॥ 

गिरिजा गिरीं विकल है धरणी । 
सो दुख दशा गयो नहीं वरणी ॥ 

हाहाकार मच्यो कैलाशा । 
शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा ॥ 

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो । 
काटि चक्र सो गज शिर लाये ॥ 

बालक के धड़ ऊपर धारयो । 
प्राण, मन्त्र पढ़ि शंकर डारयो ॥

 नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे । 
प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे ॥ 

बुद्घ परीक्षा जब शिव कीन्हा । 
पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा ॥ 

चले षडानन, भरमि भुलाई। 
रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई ॥ 

चरण मातुपितु के धर लीन्हें । 
तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें ॥ 

तुम्हरी महिमा बुद्घि बड़ाई । 
शेष सहसमुख सके न गाई ॥ 

मैं मतिहीन मलीन दुखारी । 
करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी ॥ 

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा । 
जग प्रयाग, ककरा, दर्वासा ॥

 अब प्रभु दया दीन पर कीजै । 
अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै ॥ 

॥दोहा॥
श्री गणेश यह चालीसा, पाठ करै कर ध्यान। 
नित नव मंगल गृह बसै, लहे जगत सन्मान॥ 

सम्बन्ध अपने सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश। 
पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश ॥

श्री दुर्गा चालीसा (Durga Chalisa)


नमो नमो दुर्गे सुख करनी।
 नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥

 निरंकार है ज्योति तुम्हारी।
 तिहूँ लोक फैली उजियारी॥ 

शशि ललाट मुख महाविशाला।
 नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥ 

रूप मातु को अधिक सुहावे। 
दरश करत जन अति सुख पावे॥

 तुम संसार शक्ति लै कीना। 
पालन हेतु अन्न धन दीना॥ 

अन्नपूर्णा हुई जग पाला।
 तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥ 

प्रलयकाल सब नाशन हारी। 
तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥ 

शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। 
ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥ 

रूप सरस्वती को तुम धारा।
 दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥ 

धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। 
परगट भई फाड़कर खम्बा॥ 

रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। 
हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥

 लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। 
श्री नारायण अंग समाहीं॥ 

क्षीरसिन्धु में करत विलासा। 
दयासिन्धु दीजै मन आसा॥ 

हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। 
महिमा अमित न जात बखानी॥ 

मातंगी अरु धूमावति माता। 
भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥

 श्री भैरव तारा जग तारिणी। 
छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥ 

केहरि वाहन सोह भवानी। 
लांगुर वीर चलत अगवानी॥ 

कर में खप्पर खड्ग विराजै ।
जाको देख काल डर भाजै॥ 

सोहै अस्त्र और त्रिशूला। 
जाते उठत शत्रु हिय शूला॥ 

नगरकोट में तुम्हीं विराजत।
 तिहुँलोक में डंका बाजत॥ 

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। 
रक्तबीज शंखन संहारे॥ 

महिषासुर नृप अति अभिमानी। 
जेहि अघ भार मही अकुलानी॥ 

रूप कराल कालिका धारा।
 सेन सहित तुम तिहि संहारा॥ 

परी गाढ़ सन्तन र जब जब। 
भई सहाय मातु तुम तब तब॥ 

अमरपुरी अरु बासव लोका।
 तब महिमा सब रहें अशोका॥ 

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी।
 तुम्हें सदा पूजें नरनारी॥ 

प्रेम भक्ति से जो यश गावें।
 दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥ 

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। 
जन्ममरण ताकौ छुटि जाई॥

 जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।
योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥ 

शंकर आचारज तप कीनो। 
काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥

 निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। 
काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥ 

शक्ति रूप का मरम न पायो। 
शक्ति गई तब मन पछितायो॥

 शरणागत हुई कीर्ति बखानी। 
जय जय जय जगदम्ब भवानी॥ 

भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। 
दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥ 

मोको मातु कष्ट अति घेरो। 
तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥ 

आशा तृष्णा निपट सतावें।
 मोह मदादिक सब बिनशावें॥

 शत्रु नाश कीजै महारानी।
 सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥ 

करो कृपा हे मातु दयाला। 
ऋद्धिसिद्धि दै करहु निहाला॥

 जब लगि जिऊँ दया फल पाऊँ । 
तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊँ ॥

 श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै।
 सब सुख भोग परमपद पावै॥ 

देवीदास शरण निज जानी।
 कहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

श्री कृष्ण चालीसा (Krishn Chalisa)

॥दोहा॥ 
बंशी शोभित कर मधुर, नील जलद तन श्याम। 
 अरुण अधर जनु बिम्बफल, नयन कमल अभिराम॥ 

पूर्ण इन्द्र, अरविन्द मुख, पीताम्बर शुभ साज।
 जय मनमोहन मदन छवि, कृष्णचन्द्र महाराज॥ 

जय यदुनंदन जय जगवंदन। 
जय वसुदेव देवकी नन्दन॥ 

जय यशुदा सुत नन्द दुलारे।
 जय प्रभु भक्तन के दृग तारे॥ 

जय नटनागर, नाग नथइया॥
 कृष्ण कन्हइया धेनु चरइया॥ 

पुनि नख पर प्रभु गिरिवर धारो। 
आओ दीनन कष्ट निवारो॥ 

वंशी मधुर अधर धरि टेरौ। 
होवे पूर्ण विनय यह मेरौ॥

 आओ हरि पुनि माखन चाखो। 
आज लाज भारत की राखो॥ 

गोल कपोल, चिबुक अरुणारे।
 मृदु मुस्कान मोहिनी डारे॥ 

राजित राजिव नयन विशाला।
 मोर मुकुट वैजन्तीमाला॥

 कुंडल श्रवण, पीत पट आछे। 
कटि किंकिणी काछनी काछे॥ 

नील जलज सुन्दर तनु सोहे। 
छबि लखि, सुर नर मुनिमन मोहे॥ 

मस्तक तिलक, अलक घुँघराले।
 आओ कृष्ण बांसुरी वाले॥ 

करि पय पान, पूतनहि तार्यो।
 अका बका कागासुर मार्यो॥

 मधुवन जलत अगिन जब ज्वाला।
 भै शीतल लखतहिं नंदलाला॥

 सुरपति जब ब्रज चढ़्यो रिसाई। 
मूसर धार वारि वर्षाई॥ 

लगत लगत व्रज चहन बहायो।
 गोवर्धन नख धारि बचायो॥ 

लखि यसुदा मन भ्रम अधिकाई।
 मुख मंह चौदह भुवन दिखाई॥

 दुष्ट कंस अति उधम मचायो॥ 
कोटि कमल जब फूल मंगायो॥ 

नाथि कालियहिं तब तुम लीन्हें। 
चरण चिह्न दै निर्भय कीन्हें॥ 

करि गोपिन संग रास विलासा।
 सबकी पूरण करी अभिलाषा॥ 

केतिक महा असुर संहार्यो। 
कंसहि केस पकड़ि दै मार्यो॥ 

मातपिता की बन्दि छुड़ाई ।
उग्रसेन कहँ राज दिलाई॥ 

महि से मृतक छहों सुत लायो।
 मातु देवकी शोक मिटायो॥ 

भौमासुर मुर दैत्य संहारी।
 लाये षट दश सहसकुमारी॥

 दै भीमहिं तृण चीर सहारा। 
जरासिंधु राक्षस कहँ मारा॥ 

असुर बकासुर आदिक मार्यो। 
भक्तन के तब कष्ट निवार्यो॥ 

दीन सुदामा के दुःख टार्यो। 
तंदुल तीन मूंठ मुख डार्यो॥ 

प्रेम के साग विदुर घर माँगे।
दर्योधन के मेवा त्यागे॥

 लखी प्रेम की महिमा भारी।
ऐसे श्याम दीन हितकारी॥

 भारत के पारथ रथ हाँके।
लिये चक्र कर नहिं बल थाके॥

 निज गीता के ज्ञान सुनाए।
भक्तन हृदय सुधा वर्षाए॥

 मीरा थी ऐसी मतवाली।
विष पी गई बजाकर ताली॥ 

राना भेजा साँप पिटारी।
शालीग्राम बने बनवारी॥ 

निज माया तुम विधिहिं दिखायो।
उर ते संशय सकल मिटायो॥ 

तब शत निन्दा करि तत्काला।
जीवन मुक्त भयो शिशुपाला॥ 

जबहिं द्रौपदी टेर लगाई।
दीनानाथ लाज अब जाई॥

 तुरतहि वसन बने नंदलाला।
बढ़े चीर भै अरि मुँह काला॥

 अस अनाथ के नाथ कन्हइया। 
डूबत भंवर बचावइ नइया॥ 

सुन्दरदास आ उर धारी।
दया दृष्टि कीजै बनवारी॥ 

नाथ सकल मम कुमति निवारो।
क्षमहु बेगि अपराध हमारो॥

 खोलो पट अब दर्शन दीजै।
बोलो कृष्ण कन्हइया की जै॥ 

दोहा 
यह चालीसा कृष्ण का, पाठ करै उर धारि। 
अष्ट सिद्धि नवनिधि फल, लहै पदारथ चारि॥

श्री शनि चालीसा ( Shanidev Chalisa)

                                                    ॥दोहा॥ 
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल। 
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल॥ 

जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज। 
करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज॥ 

जयति जयति शनिदेव दयाला। 
करत सदा भक्तन प्रतिपाला॥

 चारि भुजा, तनु श्याम विराजै।
 माथे रतन मुकुट छबि छाजै॥ 

परम विशाल मनोहर भाला।
 टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला॥ 

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके। 
हिय माल मुक्तन मणि दमके॥

 कर में गदा त्रिशूल कुठारा।
 पल बिच करैं अरिहिं संहारा॥

 पिंगल, कृष्ो, छाया नन्दन। 
यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन॥ 

सौरी, मन्द, शनी, दश नामा। 
भानु पुत्र पूजहिं सब कामा॥

 जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं। 
रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं॥

 पर्वतहू तृण होई निहारत।
 तृणहू को पर्वत करि डारत॥ 

राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो। 
कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो॥ 

बनहूँ में मृग कपट दिखाई। 
मातु जानकी गई चुराई॥

 लखनहिं शक्ति विकल करिडारा। 
मचिगा दल में हाहाकारा॥ 

रावण की गतिमति बौराई। 
रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई॥

 दियो कीट करि कंचन लंका। 
बजि बजरंग बीर की डंका॥ 

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा।
 चित्र मयूर निगलि गै हारा॥ 

हार नौलखा लाग्यो चोरी। 
हाथ पैर डरवाय तोरी॥ 

भारी दशा निकृष्ट दिखायो।
 तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो॥ 

विनय राग दीपक महं कीन्हयों।
 तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों॥

 हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी। 
आपहुं भरे डोम घर पानी॥ 

तैसे नल पर दशा सिरानी। 
भूंजीमीन कूद गई पानी॥ 

श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई।
 पारवती को सती कराई॥ 

तनिक विलोकत ही करि रीसा।
 नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा॥

 पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी। 
बची द्रौपदी होति उघारी॥ 

कौरव के भी गति मति मारयो। 
युद्ध महाभारत करि डारयो॥ 

रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला।
 लेकर कूदि परयो पाताला॥

 शेष देवलखि विनती लाई। 
रवि को मुख ते दियो छुड़ाई॥ 

वाहन प्रभु के सात सजाना।
 जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना॥ 

जम्बुक सिंह आदि नख धारी।
सो फल ज्योतिष कहत पुकारी॥ 

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। 
हय ते सुख सम्पति उपजावैं॥ 

गर्दभ हानि करै बहु काजा।
 सिंह सिद्धकर राज समाजा॥

 जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै। 
मृग दे कष्ट प्राण संहारै॥ 

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी।
 चोरी आदि होय डर भारी॥ 

तैसहि चारि चरण यह नामा। 
स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा॥ 

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं। 
धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं॥ 

समता ताम्र रजत शुभकारी।
 स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी॥

 जो यह शनि चरित्र नित गावै।
 कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै॥ 

अद्भुत नाथ दिखावैं लीला।
 करैं शत्रु के नशि बलि ढीला॥ 

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई।
 विधिवत शनि ग्रह शांति कराई॥ 

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत। 
दीप दान दै बहु सुख पावत॥ 

कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। 
शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा॥ 

॥दोहा॥ 
पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार। 
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार॥

श्री शिव चालीसा (Shivji Chalisa)

।।दोहा।।
 श्री गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान। 
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान॥

 जय गिरिजा पति दीन दयाला। 
सदा करत सन्तन प्रतिपाला॥ 

भाल चन्द्रमा सोहत नीके।
 कानन कुण्डल नागफनी के॥ 

अंग गौर शिर गंग बहाये। 
मुण्डमाल तन छार लगाये॥ 

वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे।
 छवि को देख नाग मुनि मोहे॥ 

मैना मातु की ह्वै दुलारी। 
बाम अंग सोहत छवि न्यारी॥

 कर त्रिशूल सोहत छवि भारी। 
करत सदा शत्रुन क्षयकारी॥

 नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे। 
सागर मध्य कमल हैं जैसे॥ 

कार्तिक श्याम और गणराऊ। 
या छवि को कहि जात न काऊ॥

 देवन जबहीं जाय पुकारा। 
तब ही दुख प्रभु आप निवारा॥

 किया उपद्रव तारक भारी।
 देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी॥

 तुरत षडानन आप पठायउ।
 लवनिमेष महँ मारि गिरायउ॥ 

आप जलंधर असुर संहारा। 
सुयश तुम्हार विदित संसारा॥ 

त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। 
सबहिं कृपा कर लीन बचाई॥ 

किया तपहिं भागीरथ भारी। 
पुरब प्रतिज्ञा तसु पुरारी॥

 दानिन महं तुम सम कोउ नाहीं।
 सेवक स्तुति करत सदाहीं॥ 

वेद नाम महिमा तव गाई। 
अकथ अनादि भेद नहिं पाई॥ 

प्रगट उदधि मंथन में ज्वाला। 
जरे सुरासुर भये विहाला॥ 

कीन्ह दया तहँ करी सहाई।
 नीलकण्ठ तब नाम कहाई॥

 पूजन रामचंद्र जब कीन्हा।
 जीत के लंक विभीषण दीन्हा॥ 

सहस कमल में हो रहे धारी। 
कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी॥

 एक कमल प्रभु राखेउ जोई।
 कमल नयन पूजन चहं सोई॥ 

कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर। 
भये प्रसन्न दिए इच्छित वर॥ 

जय जय जय अनंत अविनाशी। 
करत कृपा सब के घटवासी॥ 

दुष्ट सकल नित मोहि सतावै । 
भ्रमत रहे मोहि चैन न आवै॥

 त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो। 
यहि अवसर मोहि आन उबारो॥ 

लै त्रिशूल शत्रुन को मारो। 
संकट से मोहि आन उबारो॥ 

मातु पिता भ्राता सब कोई। 
संकट में पूछत नहिं कोई॥ 

स्वामी एक है आस तुम्हारी। 
आय हरहु अब संकट भारी॥

 धन निर्धन को देत सदाहीं। 
जो कोई जांचे वो फल पाहीं॥

 अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी।
 क्षमहु नाथ अब चूक हमारी॥ 

शंकर हो संकट के नाशन।
 मंगल कारण विघ्न विनाशन॥ 

योगी यति मुनि ध्यान लगावैं। 
नारद शारद शीश नवावैं॥ 

नमो नमो जय नमो शिवाय।
 सुर ब्रह्मादिक पार न पाय॥ 

जो यह पाठ करे मन लाई। 
ता पार होत है शम्भु सहाई॥

 ॠनिया जो कोई हो अधिकारी। 
पाठ करे सो पावन हारी॥ 

पुत्र हीन कर इच्छा कोई। 
निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई॥ 

पण्डित त्रयोदशी को लावे। 
ध्यान पूर्वक होम करावे ॥ 

त्रयोदशी ब्रत करे हमेशा।
 तन नहीं ताके रहे कलेशा॥

 धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे। 
शंकर सम्मुख पाठ सुनावे॥ 

जन्म जन्म के पाप नसावे।
 अन्तवास शिवपुर में पावे॥ 

कहे अयोध्या आस तुम्हारी। 
जानि सकल दुःख हरहु हमारी॥

 ॥दोहा॥ 
नित्त नेम कर प्रातः ही, पाठ करौं चालीसा। 
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश॥
 मगसर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान।
 अस्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण॥

श्री लक्ष्मी चालीसा (Lakshmi Chalisa)

॥ दोहा॥
 मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।
 मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥ 
॥ सोरठा॥ 
यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।
 सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥ 


 ॥ चौपाई ॥
 सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही।
ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही ॥ 

 तुम समान नहिं कोई उपकारी। 
सब विधि पुरवहु आस हमारी॥ 
जय जय जगत जननि जगदम्बा। 
सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥ 

तुम ही हो सब घट घट वासी। 
विनती यही हमारी खासी॥ 

जगजननी जय सिन्धु कुमारी। 
दीनन की तुम हो हितकारी॥

 विनवौं नित्य तुमहिं महारानी।
 कृपा करौ जग जननि भवानी॥ 

केहि विधि स्तुति करौं तिहारी।
 सुधि लीजै अपराध बिसारी॥ 

कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। 
जगजननी विनती सुन मोरी॥

 ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। 
संकट हरो हमारी माता॥

 क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। 
चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥

 चौदह रत्न में तुम सुखरासी।
 सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥

 जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा।
 रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥

 स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा।
 लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥ 

तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं।
 सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥ 

अपनाया तोहि अन्तर्यामी।
 विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥

 तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। 
कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥

 मन क्रम वचन करै सेवकाई। 
मन इच्छित वांछित फल पाई॥ 

तजि छल कपट और चतुराई।
 पूजहिं विविध भांति मनलाई॥

 और हाल मैं कहौं बुझाई।
 जो यह पाठ करै मन लाई॥ 

ताको कोई कष्ट नोई। 
मन इच्छित पावै फल सोई॥ 

त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। 
त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥ 

जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। 
ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥

 ताकौ कोई न रोग सतावै। 
पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥ 

पुत्रहीन अरु संपति हीना।
 अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥ 

विप्र बोलाय कै पाठ करावै। 
शंका दिल में कभी न लावै॥ 

पाठ करावै दिन चालीसा। 
ता पर कृपा करैं गौरीसा॥ 

सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै।
 कमी नहीं काहू की आवै॥ 

बारह मास करै जो पूजा। 
तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥

 प्रतिदिन पाठ करै मन माही। 
उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥ 

बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई।
 लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥ 

करि विश्वास करै व्रत नेमा। 
होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥

 जय जय जय लक्ष्मी भवानी। 
सब में व्यापित हो गुण खानी॥ 

तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। 
तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥

 मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै।
 संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥ 

भूल चूक करि क्षमा हमारी।
 दर्शन दजै दशा निहारी॥ 

बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। 
तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥ 

नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। 
सब जानत हो अपने मन में॥

 रुप चतुर्भुज करके धारण। 
कष्ट मोर अब करहु निवारण॥

 केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। 
ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥ 

॥ दोहा॥
त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास। 
जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥ 
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। 
मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
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