श्री गणेश चतुर्थी केवल उत्सव ही नहीं अपितु त्यौहार एवं व्रत भी है

प्रत्येक व्यक्ति इसे विविध रूप में तथा बडे धूमधाम से मनाता है । केवल भारत में ही नहीं, विदेश में भी गणेश चतुर्थी मनाई जाती है । भारत के लोकप्रिय त्यौहारों में दीपावली के उपरांत श्री गणे
श चतुर्थी का ही नाम आता है । गणेश चतुर्थी घर में त्यौहार अथवा व्रत के रूप में मनाई जाती है, तो सामाजिक स्तर पर यह उत्सव के रूपमें मनाई जाती है । गणेशोत्सव के कारण समाज की सात्त्विकता तो बढती ही है, साथ ही सामाजिक संगठन भी साध्य होता है । भगवान श्री गणेश की पूजा से एक अजीब ऊर्जा का संचार साधक को मिलता हैं ।।
किसी भी शुभ कार्य को आरम्भ करने से पूर्व भगवान देवाधिदेव गणेश की पूजा--आराधना से संभावित कष्ट- परेशानियां सरलता से दूर हो जाते हैं ।।
हिन्दू सनातन धर्म ग्रन्थ शिवपुराण के अनुसार भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेशजी की अवतरण-तिथि को गणेश चतुर्थी की पूजा धूम-धाम से मान्या जाता है| जबकि गणेशपुराणके अनुसार गणेशावतार भाद्रमाह शुक्ल चतुर्थी को हुआ था।
गण + पति = गणपति। संस्कृत कोषानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्र। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रता के स्वामी।
---आइये जाने और समझे भगवान गणेश जी के स्वरूप को
सामान्य भाषा में गणेश का अर्थ है जो ‘आत्म बोध’। जो निरंतर ‘स्व’ के ज्ञान के साथ बाधाओं को दूर करते हुए जीवन जीता है वह गणेश है। गणेश का अर्थ है एक आदर्श मनुष्य। गणेश का एक अर्थ ‘गणों का समूह’ भी है। सांसारिक अर्थों में ‘गणों’ का अर्थ है विभिन्न प्रकार के गुण और ऊर्जा (मनुष्य की प्रवृत्ति)। गणेश का सामान्य अर्थ है अपने स्व को पहचानते हुए निरंतर और अनंत ज्ञान की प्राक्ति कर बाधाओं को दूर करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करना।
हिंदू धर्म में एक नहीं, 65 हजार देवी-देताओं की पूजा होती है। सबकी अलग-अलग विशेषताएं हैं। सभी असल जीवन में जीने के खास मंत्र देते हैं। भगवान गणेश विघ्नविनाशक, मंगलमूर्ति माने जाते हैं। देवों में प्रथम पूज्य भगवान गणेश बुद्धि के देवता माने जाते हैं। सांसारिक जीवन में संपूर्ण गणेश अपने आप में जीने की सीख देते हैं। यहां हम बता रहे हैं कि गणेशजी की वेश-भूषा, उनके अस्त्र-शस्त्र और खान-पान के बारे में।
----जानिए जीवन के लिए क्या सीख देते हैं भगवान् गणेश जी:
सामान्य भाषा में गणेश का अर्थ है जो ‘आत्म बोध’। जो निरंतर ‘स्व’ के ज्ञान के साथ बाधाओं को दूर करते हुए जीवन जीता है वह गणेश है। गणेश का अर्थ है एक आदर्श मनुष्य। गणेश का एक अर्थ ‘गणों का समूह’ भी है। सांसारिक अर्थों में ‘गणों’ का अर्थ है विभिन्न प्रकार के गुण और ऊर्जा (मनुष्य की प्रवृत्ति)। गणेश का सामान्य अर्थ है अपने स्व को पहचानते हुए निरंतर और अनंत ज्ञान की प्राक्ति कर बाधाओं को दूर करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करना। किसी भी काम की शुरूआत से पहले ‘औउम गणेशाय नम:’ मंत्र उच्चारण का अर्थ है कि हम जो भी कर रहे हैं हमारी बुद्धि उसमें हमारे साथ रहे।
हाथी का सिर (बड़ा सिर और बड़े कान): हाथी का सिर जो सभी तरफ देख सकता है। एक आदर्श जीवन के लिए इंसान के अंदर की असीमित बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। गणेश का साधारण से बड़ा सिर एक सफल और आदर्श जीवन जीने के लिए बुद्धिमत्ता, समझदारी के साथ रहने की सलाह देता है।
इसके अनुसार बुद्धिमत्ता का अर्थ है स्वतंत्र सोच और गहन चिंतन। यह दोनों ही मनुष्य तभी पा सकता है जब उसे आध्यात्मिक ज्ञान हो। आध्यात्मिक ज्ञान के लिए सुनना बहुत आवश्यक है। सुनने से अर्थ है गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान या गुरु से ज्ञान प्राप्त करना।
गणेश के बड़े कान इस श्रवण शक्ति को उच्च रखने का प्रतीक हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि इंसान कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो उसे हमेशा दूसरों के विचार और सुझावों को अवश्य सुनना चाहिए। सामान्य शब्दों में गणेश इस बात का प्रतीक हैं कि खुले विचारों के साथ दूसरों की राय और सुझावों को सुनकर उसमें से अपने लिए अनुकूल का चयन कर अमल करने वाला ही बुद्धिमान है।
छोटा मुंह: कम बोलो।
बड़ा सिर: बड़ा सोचो।
बड़े कान और छोटा मुंह:----सुनो ज्यादा, बोलो कम।
सूंड:---एक तीव्र (विकसित) बुद्धि का प्रतीक है जो समझदारी से आती है। इस एक सूंड से एक बड़े वृक्ष को भी उखाड़कर फेंका जा सकता है और सुई को जमीन से भी उठाया जा सकता है।
मतलब यह इंसान को संपूर्ण शक्तिशाली बनाता है, सभी परेशानियों को हल कर सकने में सक्षम बनाता है।
----जानिए ज्योतिष, भगवान गणेश और ग्रहों का सम्बन्ध
भगवान गणेश जी को हमारे वैदिक ज्योतिष शास्त्र में बुध ग्रह से संबद्ध किया जाता है। इनकी उपासना नवग्रहों की शांतिकारक व व्यक्ति के सांसारिक-आध्यात्मिक दोनों तरह के लाभ की प्रदायक है। अथर्वशीर्ष में इन्हें सूर्य व चंद्रमा के रूप में संबोधित किया है। सूर्य से अधिक तेजस्वी प्रथम वंदनदेव हैं। इनकी रश्मि चंद्रमा के सदृश्य शीतल होने से एवं इनकी शांतिपूर्ण प्रकृति का गुण शशि द्वारा ग्रहण करके अपनी स्थापना करने से वक्रतुण्ड में चंद्रमा भी समाहित हैं। पृथ्वी पुत्र मंगल में उत्साह का सृजन एकदंत द्वारा ही आया है।
बुद्धि, विवेक के देवता होने के कारण बुध ग्रह के अधिपति तो ये हैं ही, जगत का मंगल करने, साधक को निर्विघ्नता पूर्ण कार्य स्थिति प्रदान करने, विघ्नराज होने से बृहस्पति भी इनसे तुष्ट होते हैं। धन, पुत्र, ऐश्वर्य के स्वामी गणेशजी हैं, जबकि इन क्षेत्रों के ग्रह शुक्र हैं।
इस तथ्य से आप भी यह जान सकते हैं कि शुक्र में शक्ति के संचालक आदिदेव हैं। धातुओं व न्याय के देव हमेशा कष्ट व विघ्न से साधक की रक्षा करते हैं, इसलिए शनि ग्रह से इनका सीधा रिश्ता है। चूँकि गणेशजी के जन्म में भी दो शरीर का मिलाप (पुरुष व हाथी) हुआ है। इसी प्रकार राहु-केतु की स्थिति में भी यही स्थिति विपरीत अवस्था में है अर्थात गणपति में दो शरीर व राहु-केतु के एक शरीर के दो हिस्से हैं। इसलिए ये भी गणपतिजी से संतुष्ट होते हैं। गणेशजी की स्तुति, पूजा, जप, पाठ से ग्रहों की शांति स्वमेव हो जाती है। किसी भी ग्रह की पीडा में यदि कोई उपाय नहीं सूझे अथवा कोई भी उपाय बेअसर हो तो आप गणेशजी की शरण में जाकर समस्या का हल पा सकते हैं। विघ्न, आलस्य, रोग निवृत्ति एवं संतान, अर्थ, विद्या, बुद्धि, विवेक, यश, प्रसिद्धि, सिद्धि की उपलब्धि के लिए चाहे वह आपके भाग्य में ग्रहों की स्थिति से नहीं भी लिखी हो तो भी विनायकजी की अर्चना से सहज ही प्राप्त हो जाती है।
----भगवान गणेश और बुद्धि का सम्बन्ध
प्रत्येक मनुष्य में दो प्रकार की बुद्धि होती है एक ‘स्थूल’ और दूसरी ‘तीव्र (तीक्ष्ण या सूक्ष्म बुद्धि)’। स्थूल बुद्धि हमेशा विपरीत आभासों की पहचान करती है जैसे काला-उजला, कठोर-मुलायम, आसान-कठिन आदि जबकि तीव्र बुद्धि सही-गलत, स्थायी-अस्थायी आदि के बीच अंतर की पहचान करती है। आत्मज्ञानी इंसान में ये दोनों ही बुद्धि विकसित होते हैं। ऐसे इंसानों की सोच प्रखर होती है और यह सही-गलत की पहचान कर सकने में सक्षम होता है। इस विकसित सोच के बिना इंसान एक स्पष्ट सोच नहीं रख पाता और हमेशा भ्रमित रहता है लेकिन जिसने इस स्पष्ट बुद्धि को पा ली उसका पूरा जीवन आसान हो जाता है। यह सूंड इसी अत्मज्ञानी बुद्धि का प्रतीक है।
इसका एक और अर्थ यह भी है कि आत्मज्ञानी और बुद्धिमान मनुष्य संसार में विरोधाभासी विचारों से बहुत दूर रहता है। उसे अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण होता है और पसंदगी-नापसंदगी जैसी चीजों से बहुत दूर रहते हुए वह अपने लिए सही का चुनाव कर लेता है।
- एकदंत: अच्छे को रखो, बुरे को छोड़ दो (अच्छी आदतें रखकर बुरे को दूर कर दो)। गणेश की बाईं तरफ का दांत टूटा है। इसका एक अर्थ यह भी है। मनुष्य का दिल बाईं ओर होता है। इसलिए बाईं ओर भावनाओं का उफान अधिक होता है जबकि दाईं ओर बुद्धि परक होता है।
- बाईं ओर का टूटा दांत इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य को अपनी भावनाओं को अपने बुद्धि से नियंत्रण में रखना चाहिए। इसका दूसरा अर्थ है कि मनुष्य को पूरे विश्व को एक समझना चाहिए और खुद को उस विश्व का आंतरिक हिस्सा।
- छोटी आंखें: एकाग्र चित्त। अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहो। मन को भटकने मत दो।
- बड़ा पेट: अच्छी-बुरी सभी बातों/भावों को समान भाव से ग्रहण करना/समान भाव में लेना। दूसरे शब्दों में यह मनुष्य को उदार प्रवृत्ति का होने की सीख भी देता है।
चारों हाथों के अलग-अलग भाव और शस्त्रों के अर्थ: कुल्हाड़ी: भावनाओं/मोह-माया से दूर रहना। दूसरे शब्दों में यह मनुष्य को अध्यात्मिक होने की सलाह देता है। अध्यात्मिकता की कुल्हाड़ी से इच्छा का विनाश। इसका एक अर्थ यह भी है कि बुद्धिमान मनुष्य पर अपने पुराने अच्छे-बुरे सभी कर्मों के प्रभाव से मुक्त (कटा) रहता है और खुशहाल जीवन जीता है।
- हाथों में रस्सी: अपने लक्ष्य की ओर हमेशा अग्रसर रहना। लक्ष्य की ओर आगे बढ़ते रहने के लिए हर संभव प्रयास करना। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह रस्सी भौतिकवादी संसार से बाहर निकलने के लिए हमेशा प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता है।
- कमल: जैसे कीचड़ में होने के बावजूद कमल खिलता है और उसी में रहते हुए अपना अस्तित्व बरकरार रखता है उसी प्रकार संसार में रहते भी तमाम विषमताओं/विरोधों-परेशानियों का सामना करते हुए भी मनुष्य जीवन को मुक्त भाव से जीता है और अपनी विशेषताओं को खत्म नहीं देता।
- आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ: उच्च कार्यक्षमता और अनुकूलन क्षमता। परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल लेने की क्षमता विकसित करने वाले की हमेशा जीत होती है। इसका एक अर्थ यह भी है कि बुद्धिमान मनुष्य अपने साथ हमेशा दूसरों के भले का भी सोचता है।
- नीचे की ओर हाथ: मतलब एक दिन हर किसी को मिट्टी में मिल जाना है।
- लड्डू (मोदक): साधना का फल अवश्य मिलता है। यहां एक और बात यह है कि भगवान गणेश की किसी भी मुद्रा में उन्हें लड्डू खाते नहीं दिखाया जाता। इसका एक अर्थ यह भी है कि बुद्धिमान मनुष्य को पुरस्कार तो मिलते हैं लेकिन वह उन पुरस्कारों के मोह में कभी बंधता नहीं और उनके कुप्रभावों से हमेशा दूर ही रहता है।
- चूहे की सवारी: इच्छाओं का प्रतीक है। जैसे चूहा की इच्छा कभी पूरी नहीं होती, उसे कितना भी मिले हमेशा खाता ही रहता है वैसे ही मनुष्य की इच्छाएं भी कितना भी मिले कभी तृप्त नहीं होती। गणेश हमेशा चूहे की सवारी करते हैं। इसका अर्थ है कि बेकाबू इच्छाएं हमेशा विध्वंस का कारण बनते हैं। इसलिए इन इच्छाओं को काबू में रखते हुए इसे अपने मनमुताबिक मोड़ो, न कि इन इच्छाओं के मुताबिक खुद को बहाओ।
- एक पैर पर खड़ा होने का भाव: गणेश की यह अवस्था यह बताती है कि हालांकि दुनिया में रहते हुए मनुष्य को सांसारिक कर्म भी करने जरूरी हैं वस्तुत: इस सबमें एक संतुलन बनाए रखते हुए उसे अपने सभी अनुभवों को परे रखते हुए अपनी आत्मा से भी जुड़ाव रखना चाहिए और आध्यात्मिक होना चाहिए। जीवन में अपने आध्यात्मिक लक्ष्यों को कभी उपेक्षित नहीं करना चाहिए।
- गणेश के पैरों में प्रसाद:--- धन और शक्ति का प्रतीक है। इसका अर्थ है कि जो अपना जीवन सत्य की राह पर जीते हैं उन्हें संसार पुरस्कार जरूर देता है। अपने क्षेत्र में आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने वालों को सम्मान और धन अवश्य मिलता है चाहे उन्होंने इसकी कामना न की हो। प्रसाद के बारे में एक रोचक बात यह भी है कि
भगवान गणेश के चित्रों में प्रसाद के साथ ही एक चूहा भी अवश्य रहता है और वह गणेश जी की तरफ देख रहा होता है। इसका अर्थ है कि पुरस्कार पाने के बाद भी इंसान को अपनी इच्छाओं और भावनाओं को काबू में रखना चाहिए।
----जानिए श्री गणेशजीके विविध नाम
मुद्गल ऋषि द्वारा रचित श्री गणेशसहस्रनाम में श्रीगणेशजी के एक सहस्र नाम दिए गए हैं । द्वादशनाम स्तोत्र में श्री गणेशके वक्रतुंड, एकदंत, कृष्णपिंगाक्ष, गजवक्त्र इत्यादि बारह नाम हैं । श्री गणेशजीको ‘विघ्नहर्ता’ भी कहते हैं । विघ्नहर्ता अर्थात सभी विघ्नोंका हरण करनेवाले ।
----जानिए श्री गणेशजीको ‘विघ्नहर्ता’ कहने का अध्यात्मशास्त्रीय कारण
अष्ट दिशाओं में तीन सौ साठ विभिन्न तरंगें निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं । ये तरंगें रज एवं तमयुक्त होती हैं । इनमें रज तरंगों को तिर्यक तरंगें कहते हैं तथा तम तरंगों को विस्फुटित तरंगें कहते हैं । इन तरंगों के समुदाय होते हैं । इन समुदायों को गण कहते हैं । ये गण-समुदाय जीवसृष्टि पर अनिष्ट प्रभाव डालते हैं, जिससे जीवसृष्टि को विविध विघ्नों का सामना करना पडता है । श्री गणेशजी इन तरंग-समुदायों को नियंत्रित कर विघ्नों को हरते हैं अर्थात नष्ट करते हैं । साथ ही अधो अर्थात नीचे की एवं ऊर्ध्व अर्थात ऊपरकी दिशा पर भी वे नियंत्रण रखते हैं । इसलिए श्री गणेशजी को ‘विघ्नहर्ता’ कहते हैं । कार्यके अनुसार भी श्रीगणेशजी के विविध नाम हैं ।
------जानिए श्री गणेशजी की कुछ विशेषताएं
- प्रत्येक शुभकार्य में प्रथम पूजन होना
- किसी भी कार्यका शुभारंभ करनेको ‘श्री गणेश करना’ कहते हैं । श्री गणेशजी दसों दिशाओंके स्वामी हैं । दसों दिशाओंसे आनेवाले अच्छे एवं कष्टदायक स्पंदनोंपर श्री गणेशजीका ही नियंत्रण रहता है । प्रत्येक कार्यके आरंभमें श्रीगणेशजीका पूजन तथा स्मरण करनेसे दसों दिशाओंके मार्ग खुल जाते हैं परिणामस्वरूप जिस देवताका आवाहन किया जाता है, उनका तत्त्व पूजास्थानपर सहज आ सकता है । अर्थात श्री गणेशजी हमें आवश्यक देवतातत्त्वका लाभ करवाते हैं । इसी कारणसे किसी भी शुभकार्यके आरंभमें श्री गणेशजीका स्मरण, वंदन एवं पूजन किया जाता है । इसीको ‘महाद्वारपूजन’ अथवा ‘महागणपतिपूजन’ कहते हैं ।
- अनिष्ट शक्तियोंके कारण होनेवाले कष्टका निवारण करना
- समाज के अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में अनेक अडचनें होती हैं । अनिष्ट शक्तियों के कारण भी उन्हें विविध शारीरिक तथा मानसिक कष्ट होते हैं; परंतु दुर्भाग्यसे अनेक व्यक्ति ऐसे कष्टों के बारे में अनभिज्ञ होते हैं । कुछ लोग अनिष्ट शक्ति की पीडा के निवारण हेतु मंत्र-तंत्र जैसे उपाय करते हैं । इन उपायों का तात्कालिक परिणाम मिलता है । परंतु अनिष्ट शक्तियों के कष्ट का स्थायी निवारण साधना से ही हो सकता है । इसके लिए उच्च देवताओं की उपासना आवश्यक है ।
- ये सात उच्च देवता हैं – श्री गणपति, श्रीराम, मारुति, शिव, श्री दुर्गादेवी, भगवान दत्तात्रेय एवं भगवान श्रीकृष्ण । इन उच्च देवताओं में भाव सहित श्रीगणेशजी का नाम जप करने से अनिष्ट शक्तियों की पीडा से निवारण हो सकता है । अनिष्ट शक्तियों से पीडित व्यक्ति से बात करने पर उससे प्रक्षेपित रज-तमका परिणाम अन्य व्यक्तियों पर भी होता है । इसलिए उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को प्रकृति के अनुसार सिरदर्द तथा जी मितलाना अर्थात नॉशिआ जैसे विविध प्रकार के कष्ट हो सकते हैं । श्री गणेशजी के नाम जप के चैतन्य से ये कष्ट घट जाते हैं ।
----श्री गणेशजीसे संबंधित तिथि----
श्री गणेशजी की तत्त्व तरंगें सर्वप्रथम जिस तिथि को पृथ्वी पर आईं, वह तिथि थी चतुर्थी । तबसे श्री गणेशजी का एवं चतुर्थी का संबंध स्थापित हुआ । इस तिथि पर पृथ्वी के स्पंदन श्री गणेशजी के स्पंदनों के समान होते हैं । इसलिए वे एक-दूसरे के लिए अनुकूल होते हैं । अर्थात उस तिथि पर श्री गणेशजी के स्पंदन पृथ्वी पर अधिक प्रमाण में आते हैं । प्रत्येक मास की चतुर्थी के दिन पृथ्वी पर गणेशतत्त्व नित्य की तुलना में सौ गुना अधिक कार्यरत रहता है । इस तिथि पर की गई श्रीगणेशजी की उपासना से गणेशतत्त्व का लाभ अधिक होता है । इस दिन श्री गणेशजीके तारक एवं मारक तत्त्व भी अन्य दिनोंकी तुलनामें अधिक कार्यरत रहते हैं । इस दिन ब्रह्मांडसे भूमंडलपर गणेश तत्त्वकी तरंगें आकृष्ट होती हैं । इनके कारण वातावरणकी सात्त्विकता बढती है एवं रज-तम कणोंका विघटन होता है । विघटनका अर्थ है, रज-तमका प्रमाण घट जाना । प्रत्येक माहमें मुख्यतः दो चतुर्थी आती हैं । प्रथम शुक्लपक्षमें आनेवाली विनायकी चतुर्थी तथा दूसरी है, कृष्णपक्षमें आनेवाली संकष्टी चतुर्थी । मंगलवारके दिन आनेवाली चतुर्थीको ‘अंगारकी चतुर्थी’ कहते हैं ।
----जानिए की कैसे करें चंद्र दर्शन दोष से बचाव----
प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन करने के पश्चात् व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी की रात्रि को चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने के) पश्चात् आहार लेन का समय निषिद्ध किया गया है।
जो व्यक्ति इस रात चन्द्रमा देखता हैं उन् व्यक्ति को झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों में लिखा गया है। यह भी माना जाता है की गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम मिलता है, इसमें किए संशय नहीं है। यदि आप जाने-अनजाने में चन्द्रमा देख भी लें तो इस मंत्र का पाठ अवश्य करना चाहिए---
‘सिहः प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तकः॥’