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जानिए नौकरी में प्रमोशन/तरक्की/उन्नति के लिए कुछ ज्योतिषीय उपाय

आज के समय की सबसे बड़ी समस्या है अच्छी नौकरी, अगर किसी के पास अच्छी नौकरी है तो उसे समय पर अच्छा प्रमोशन या वेतन वृद्धि नहीं मिलती। हर व्यक्ति अपनी नौकरी में प्रमोशन या पदोन्नति चाहता हैं। अगर आप नौकरी में उन्नति के लिए प्रयास कर रहे हैं और बात नहीं बन रही है तो यहां ज्योतिष अनुसार सरल उपाय बताये जा रहे हैं। ऐसी समस्याओं को दूर करने के लिए आपको मेहनत तो करनी ही है पर साथ-साथ अगर यह उपाय भी करेंगे तो आपको आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की बहुत बार ऐसा होता है की जन्मकुण्डली में किसी भी प्रकार के ग्रह दोष के चलते हमें बहुत सी परेशानियां अकारण घेरे रहती हैं। हम चाह कर भी उन परेशानियों से निजात नहीं पा पाते। एक परेशानी खत्म होते ही दूसरी सिर उठा कर खड़ी रहती है। नौकरी में प्रमोशन और इंक्रीमेंट चाहते हैं तो एक आसान और प्रभावशाली उपाय अपनाने से निश्चित ही लाभ होगा। इसके अतिरिक्त ऑफिस में अन्य लोगों के कारण आपको समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हो या बॉस बेवजह आप पर भड़कता रहता हो और प्रमोशन के योग बनते बनते रह जाते हों। पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार वैदिक ज्योतिष में दशम भाव कर्म का भाव होता है। इस भाव से हमें नौकरी और व्यवसाय का बोध होता है। इसके अलावा दशम भाव और दशम भाव का स्वामी सांसारिक जीवन में हमारे प्रदर्शन के बारे में सूचित करता है। 
Know-some-astrological-measures-for-promotions-in-the-job-जानिए नौकरी में प्रमोशन/तरक्की/उन्नति के लिए कुछ ज्योतिषीय उपाय       वैदिक ज्योतिष के अनुसार कई ग्रह दशम भाव के लिए लाभकारी होते हैं और शुभ फल देते हैं। इनमें सूर्य कार्य क्षेत्र में हमारे लक्ष्य और महत्वाकांक्षा का कारक होता है। मंगल ग्रह हमारी व्यावसायिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए ऊर्जा प्रदान करता है और बेहतर प्रयासों के लिए प्रेरित करता है। वहीं बुध ग्रह बुद्धि और ज्ञान का कारक होता है इसलिए बुध के प्रभाव से कार्य क्षेत्र में उन्नति मिलती है। बृहस्पति यानि गुरु की कृपा से नौकरी और व्यवसाय में कई अच्छे अवसर प्राप्त होते हैं, साथ ही करियर के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी होती है। इसके अलावा शनि देव जिन्हें कर्म अधिकारी कहा जाता है। वे हर मनुष्य को उसके कर्म के आधार पर शुभ फल और दंड देते हैं। काल पुरुष राशि चक्र में शनि स्वयं दशम भाव के स्वामी हैं। इस वजह से शनि देव कर्म और कार्य क्षेत्र में मनुष्य को अनुशासन, समर्पण और प्रतिबद्धता के लिए प्रेरित करते हैं। 
     पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कुंडली में दशम भाव के स्वामी और दशम भाव के पीड़ित रहने से हमारी प्रोफेशनल लाइफ में परेशानियां आती हैं। जब कोई क्रूर ग्रह दशम भाव में स्थित रहकर अशुभ फल देता है तो इसके परिणामस्वरुप नौकरी और व्यवसाय में समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसे में जॉब मिलने में देरी, नौकरी से निकाला जाना, पदोन्नति नहीं होना, जॉब को लेकर असंतुष्ट रहना और करियर में तमाम तरह की परेशानी देखनी पड़ती है। जन्म कुंडली के अध्ययन से इस बात का पता लगाया जा सकता है। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की नौकरी में प्रमोशन के उपाय जानने वाले जातकों के लिए यह लेख वरदान साबित होगा। इस लेख में हम आपको नौकरी में तरक्की पाने के सरल उपाय दे रहे हैं। नौकरी पेशा से जुड़े लोगों को हर साल पदोन्नति और वेतन वृद्धि का इंतज़ार रहता है। सालभर बेहतर प्रदर्शन और मेहनत करने पर प्रमोशन और सैलरी इंक्रीमेंट मिलने से नौकरी करने वाला हर व्यक्ति खुश होता है, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि जॉब कर रहे जातकों को उनकी मेहनत का फल नहीं मिलता है। उनके प्रमोशन में किसी न किसी प्रकार की रुकावट या बाधा देखने को मिलती है। ऐसे लोगों के लिए वैदिक ज्योतिष में नौकरी में तरक्की के उपाय बताए गए हैं। इन उपायों के माध्यम से नौकरी कर रहे जातक आसानी से अपनी मेहनत का फल प्रमोशन और इंक्रीमेंट के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री के मतानुसार इन सभी मुश्किलों के समाधान के लिए केवल एक अचूक उपाय आपकी मदद कर सकता है। आपके द्वारा की गई मेहनत रंग लाएगी और आप दिन दुगुनि रात चौगुनी तरक्की करेंगे। यदि आप अपनी नौकरी में प्रमोशन या पदोन्नति चाहते हैं तो यहां ज्योतिष अनुसार कुछ उपाय बता रहे हैं। इनमें से कोई भी एक उपाय आजमा सकते हैं। बस किसी भी एक उपाय ही लगातार करने से आपकी मनोकामनापूर्ण हो जाएगी।
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 इन ज्योतिषीय उपाय से होगा नौकरी में प्रमोशन -- 
 कुंडली में दशम भाव के स्वामी से संबंधित मंत्रों का जप करना चाहिए। पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की यदि जातक विभिन्न ग्रहों के दुष्प्रभाव से पीड़ित रहता है तो भी नौकरी में परेशानी आती है। इसके निराकरण लिए घर पर नवग्रह हवन या मंदिर में नवग्रह अभिषेक करवाना चाहिए। इसके प्रभाव से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। नवग्रह हवन व अभिषेक से राहु-केतु के दोषों से भी मुक्ति मिलती है।       सूर्योदय के समय सूर्य देव को जल चढ़ाएं और गायत्री मंत्र या सूर्य मंत्र का जप करें। ऐसा करने से व्यावसायिक जीवन में उन्नति होती है। सूर्य के प्रभाव से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा मनुष्य को जीवन में आने वाली कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति प्रदान करती है। इसके प्रभाव से आपको कार्य स्थल पर अपने वरिष्ठ सहकर्मियों और अधिकारियों के साथ तालमेल बनाकर चलने में मदद मिलेगी। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की शनिवार के दिन शनि मंदिर में तेल का दीया जलाने से भी नौकरी में आ रही परेशानियां दूर होती है। शनि मंत्र का जप करने से शनि से संबंधित दुष्प्रभाव कम होते हैं। शनि देव की कृपा से मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा से हमारी प्रोफेशनल लाइफ में एक नई ऊर्जा का संचार होता है। 
       पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की वे लोग जो व्यवसाय करते हैं उनके लिए व्यापार वृद्धि यंत्र एक वरदान है। इस यंत्र को अपने कार्य स्थल या ऑफिस में स्थापित करें। इस यंत्र के सकारात्मक प्रभाव से धन लाभ, संतुष्टि व आर्थिक हानि का संकट दूर होता है। साथ ही बिजनेस में पार्टनरशिप और व्यवसाय के विस्तार में मदद मिलती है।
       हनुमानजी का आकाश में उड़ता हुआ एक चित्र लगाएं और प्रतिदिन उसके समक्ष बैठकर हनुमान चालीसा का पाठ करें। प्रति मंगलवार या शनिवार को बढ़ के पत्ते पर आटे का दीया जलाकर उसे हनुमानजी के मंदिर में रख आएं। ऐसा कम से कम 11 मंगलवार या शनिवार करें। 
       पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की शनिवार की सुबह जल्दी उठें और सभी नित्य कर्मों से निवृत्त होकर पवित्र हो जाएं। इसके बाद घर में किसी पवित्र स्थान पर पूजन का विशेष प्रबंध करें या किसी मंदिर में जाएं। शनिवार शनि की पूजा का विशेष दिन माना जाता है। शनि हमारे कर्मों का फल देने वाले देवता हैं। अत: इसी दिन शनि देव का विधिवत पूजन करनी चाहिए। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार नौकरी या प्रमोशन की इच्छा रखने वाले लोगों को प्रतिदिन पक्षियों को मिश्रित अनाज खिलाना चाहिए। आप सात प्रकार के अनाजों को एकसाथ मिलाकर पक्षियों को खिलाएं। इसमें गेहूं, ज्वार, मक्का, बाजरा, चावल, दालें शामिल की जा सकती हैं। प्रतिदिन सुबह-सुबह यह उपाय करें, जल्दी ही नौकरी से जुड़ी इच्छाएं पूरी हो जाएंगी।उनके लिए जल की व्यवस्था भी करें। यह उपाय कम से कम 43 दिन तक करें। जब पक्षी आपके घर की छत पर चहकेंगे तो घर के ईर्द गिर्द फैली नकारत्मकता का नाश होगा और सकारात्मकता का संचार होगा। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की प्रमोशन/ तरक्की के लिए सूर्य देवता को मनाना काफी शुभ बताया जाता है। जो लोग आसानी से तरक्की करते हैं उनका सूर्य काफी स्ट्रोंग होता है। आप प्रतिदिन सुबह सूर्य को पानी अर्पित करें और सूर्य नमस्कार किया करें। सूर्य देवता को जल अर्पित करने वाला बर्तन तांबे का हो और उसके अन्दर कुछ बूंदे गंगाजल की डाल लें। जल अर्पित करने के बाद आप सूर्य देवता से अपनी इच्छा रोज जाहिर किया करें। अगर लाख मेहनत करने पर भी मनचाहा वेतन या प्रमोशन नहीं मिल रहा है तो आज से ही रोज रात में एक हरे कपड़े में एक इलायची को बांधकर तकिए के नीचे रखकर सो जाएं और प्रात: उसे घर के किसी बाहरी व्यक्ति को दे दीजिए। 
        पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार यदि नौकरी-पेशा करने वाले जातकों को जॉब में प्रमोशन नहीं मिल रहा है अथवा उनकी तनख़्वाह में वृद्धि नहीं हो रही है तो उन्हें मंगलवार के दिन हनुमान जी की आराधना करना चाहिए। हर रविवार को गाय को किसी बर्तन में गुड़ व गेहूं रखकर स्नेहपूर्वक खिलाएं। इसके साथ ही मंदिर में पीली वस्तुएं दान करें। शुक्ल पक्ष के सोमवार को तीन गोमती चक्र चांदी के तार से बांध कर हमेशा अपने पास रखें। 
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 नौकरी में तरक़्क़ी पाने, नई नौकरी पाने, सैलरी में वृद्धि के लिए एवं मनपसंद स्थानातंरण के अलावा नौकरी में आ रही रुकावटों को दूर करने के लिए अन्य ज़रुरी उपाय-- 
 1. किसी ग़रीब को काले कंबल का दान करें 
 2. पिसी हुई हल्दी को बहते पाने में डालें 
 3. घर से निकलने से पूर्व पहले दाहिना पैर निकालें 
 4. सोमवार को कनिष्ठिका अँगुली में चाँदी की अंगूठी में मोती धारण करें 
 5.सुबह पीपल के वृक्ष पर जल चढ़ाएँ एवं पदोन्नति की कामना करें 
 6. रविवार या मंगलवार के दिन मन में पदोन्नति की कामना करते हुए लाल कपड़े में जटा वाला नारियल बांधें और उसे पूर्व दिशा की ओर बहते हुए जल में प्रवाहित करें 
 7. शुक्ल पक्ष में पड़ने वाले सोमवार के दिन सिद्ध योग में तीन गोमती चक्र को चाँदी के तार में बाँधकर अपने पास रखें 
 8. घर से निकलते समय एक नींबू को अपने सिर के ऊपर से 7 बार घुमाएँ और चार लौंग इसके अन्दर डालें। अब इस नींबू को अपनी जेब या बैग में रखें और शाम को किसी बहते पानी में या किसी सुनसान जगह रख दें 
 9. यदि मनचाहा स्थानांतरण चाहते हैं तो अपने तकिये के नीचे अनंतमूल की जड़ को रखकर सोएँ 
 10. प्रत्येक शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे सरसो के तेल का दीपक जलाकर 7 परिक्रमा करें। 
 11. प्रत्येक गुरुवार को पीपल के वृक्ष को जल चढ़ाएँ लेकिन वृक्ष को स्पर्श न करें 
 12. पिता की सेवा करें और उन्हें यथासंभव कुछ उपहार दें 
 13. पीपल के 11 साबुत पत्ते लेकर उन पर लाल सिन्दूर से राम-राम लिखकर प्रत्येक पत्ते को माथे से लगाकर साइड रखते जाएं। जब सभी पत्तों पर राम-राम लिख जाये तो मौली माला बनाकर हनुमान जी से अपनी नौकरी की प्रार्थना करते हुए उन्हें ये माला पहना दें। ऐसा लगातार 7 शनिवार तक करें 
 14. नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाते समय एक नींबू में 4 लौंग गाढ़कर ॐ हं हनुमंते नमः मंत्र का 21 बार जाप करके नींबू को जेब या पर्स में रखकर जाएं और वापिस आकर ,किसी पीपल के पेड़ के नीचे रख दें 15. किसी अच्छे से ज्योतिषी को अपनी जन्म पत्रिका दिखाकर दशम भाव तथा दशमेश को मज़बूती प्रदान करें

आइये जाने और समझें दुर्घटनाओं का योग को--- (क्यों होते हैं एक्सीडेंट/दुर्घटना)

अक्सर हम सभी स्वयं अपने जीवन में और अपने आस-पास के लोगों के जीवन में बहुत बार एक्सीडैंट या दुर्घटनाओं को होते देखते हैं जो सामान्य रूप से चल रहे जीवन को पूरी तरह अस्त-व्यस्त कर देते हैं वाहन से होने वाले एक्सीडैंट तो अक्सर हमारे सामने आते ही रहते हैं, कई बार समान्य रूप से रास्ते में चल रहे लोग दुर्घटनाओं का शिकार हो जाते हैं तो कई बार घर बैठे ही दुर्घटनाएं हो जाती हैं तो कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके साथ अक्सर चोट आदि लगने की घटनाएं होती ही रहती हैं इन दुर्घटनाओं को लेकर जब हमने उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री से ग्रहों के संबंध में बात की तो उन्होंने बताया कि मंगल, शनि और राहू के समीकरण से फिलहाल दुर्घटनाओं और मौत के मामले बढ़े हैं। 
        आइए जानते हैं ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री से इस विषय में विस्तार से— आइये जाने और समझें को--- 
आइये जाने और समझें दुर्घटनाओं का योग को--- (क्यों होते हैं एक्सीडेंट/दुर्घटना)-Let-understand-the-sum-of-accidents       ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि दुर्घटनाओं का गणित समझने के लिए हमें अपने देश की कुंडली पर नजर डालनी होगी। देश की गोचर कुंडली में 26 अक्टूबर से शनि लग्न कुंडली की धनु राशि पर यानी अष्टम भाव में आ गया है। अष्टम भाव मृत्यु का भाव होता है। मंगल कन्या राशि पर है यानी लग्न कुंडली के पंचम भाव में है। राहू कर्क पर है यानी लग्न कुंडली के तीसरे भाव पर है। इस स्थिति में मंगल और राहू दोनों ही शनि को देख रहे हैं और शनि इन्हें देख रहा है। वहीं सूर्य गोचर कुंडली में तुला राशि पर हैं, यानी लग्न राशि के छठवें भाव में हैं। तुला में होने के कारण सूर्य नीच का है। इस तरह शनि, राहू और मंगल का समीकरण व सूर्य का नीच राशि में होने से दुर्घटनाएं व मृत्यु के मामले तेजी से बढ़े हैं। 
       सभी नौ ग्रहों में एक शनि ऎसा ग्रह है जो सबसे अधिक समय तक एक राशि में रहता है. इसी तरह गोचर में कभी न कभी ग्रहों का संबंध एक साथ बनता है,जैसे अभी मंगल और शनि का युति संबंध बन रहा है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि और मंगल दोनों ही क्रूर एवं पाप ग्रह माने जाते हैं.जहां एक और मंगल बहुत उग्र, क्रोधी हैं और इनकी प्रकृति तमस गुणों वाली मानी गई है. इसी प्रकार अपनी धीमि गति से चलते हुए शनिदेव अपना असरदार प्रभाव देते हैं, अपने अद्वितीय तेज से दोनों ही ग्रह सभी को प्रभावित करते से दिखाई देते हैं. यह सभी पर ऊर्जावान कार्रवाई, आत्मविश्वास तथा अहंकार का प्रतिनिधित्व करते हैं. शनि और मंगल आपस में एक-दूसरे के शत्रु हैं. मृत्यु के कारक शनि और रक्त के कारक ग्रह मंगल एक दूसरे का के साथ युति में होना बहुत सी परेशानियों का कारण बन सकता है. 
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शनि तोड़ेगा हड्डी और मंगल निकालेगा खून---
 ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि शनि लोहे के स्वामी माना जाता है। इस कारण वाहन का प्रयोग करने वालों को सावधानी बरतनी होगी। शनि की इस स्थिति से हड्डी टूटने या इस तरह की अन्य समस्याएं सामने आएंगी, वहीं मंगल खून निकालता है। इसके अलावा सूर्य का नीच राशि में होना और राहू का कर्क में होना इन दुर्घटनाओं को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। कुंडली में शनि और मंगल की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखती है. जन्म कुंडली में इन दोनों ग्रहों की युति यानी एक ही भाव में साथ होना अच्छा संकेत नही माना जाता है .गोचर में भी शनि और मंगल की अशुभ युतियां देखी जा सकती हैं जिनका असर कुछ खास अच्छा नहीं होता है. इन ग्रहों का शत्रु के साथ होना अच्छा नहीं माना जाता है. यह दुघर्टना और संकट का सूचक बनते हैं | 
        शनि मंगल का दृष्टि संबंध बनना और षडाष्टक योग बनाना आपदाओं का कारण हो सकता है. हाल फिलहाल बनने वाला मंगल का शनि के साथ कन्या राशि में यह योग इस समय अनेक परेशानियों, दुर्घटनाओं का कारण बन सकता है. प्राकृतिक आपदाएं और राष्ट्रों का आपसी मतभेद बढ़ सकता है. आतंकी घटनाओं में तेजी की संभावना देखी जा सकती है | मंगल का राशि परिवर्तन का असर सभी पर दिखाई दे सकता है. मंगल राशि परिवर्तन और शनि के साथ युति से अचानक सफलता और वाणी एवं चतुराई में तेजी देखी जा सकती है. अनावश्यक गुस्सा और मानसिक तनाव बढ़ सकता है. नए उत्तरदायित्व मिल सकते हैं और व्यवसायियों को धन लाभ होने के योग बनते हैं. रूके हुए कार्य मेहनत से करने पर ही पूरे होंगे. वाहन, मशिनरी के क्रय- विक्रय से लाभ हो सकता है इस समय में दुर्घटना और धन हानि के योग भी बन सकते हैं. भूमि प्रॉपर्टी से संबंधित लोगों के लिए ये समय अच्छा रह सकता है. व्यर्थ के विवाद का सामना भी करना पड़ सकता है| 
       वर्तमान में ग्रहों की स्थिति पर नजर डाले तो इस आधार पर मंगल का शनि से योग बना रहा है. ग्रहों की यह स्थिति राष्ट्र के मौजूदा घटना क्रम व वर्तमान उथल-पुथल का कारण बन सकती हैं. सांसारिक जीवन में आजीविका, नौकरी, कारोबार, सेहत या संबंधों के लिए मिले जुले परिणाम देने वाला हो सकता है |दशम व्यापार-व्यवसाय भाव का स्वामी शनि से दृष्ट होकर कुंभ राशि में सप्तमस्थ होने से स्त्री वर्ग पर अत्याचार नहीं रुकेंगे, वहीं बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आएगी।घटना-दुर्घटनाओं में कमी के योग कम ही हैं। शत्रु पक्ष पर प्रभाव में वृद्धि होगी। यह समय शासन-प्रशासन के लिए कड़ी परीक्षा का रहेगा। राजनेताओं को सावधानीपूर्वक चलना होगा। कहीं भूकंप या रेल दुर्घटनाओं के योग बनेंगे। शनि लोहे का कारक होता है व वक्र गति से चलने से उक्त समय सावधानी का रहेगा। शनि का राशि परिवर्तन देश के लिए खतरे का भी संकेत है।
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कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनके साथ अक्सर चोट आदि लगने की घटनाएं होती ही रहती हैं ज्योतिष के दृष्टिकोण से कुछ विशेष ग्रह योग ही एक्सीडैंट की घटनाओं का कारण बनते हैं तो आज हम एक्सीडैंट या दुर्घटना के पीछे की ग्रहस्थितियों के बारे में चर्चा करेंगे – ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि “ज्योतिष में “मंगल” को दुर्घटना, एक्सीडेंट या चोट लगना, हड्डी टूटना, जैसी घटनाओं का कारक ग्रह माना गया है “राहु” आकस्मिक घटनाओं को नियंत्रित करता है इसके आलावा “शनि” वाहन को प्रदर्शित करता है तथा गम्भीर स्थितियों का प्रतिनिधित्व करता है अब यहाँ विशेष बात यह है के अकेला राहु या शनि दुर्घटना की उत्पत्ति नहीं करते जब इनका किसी प्रकार मंगल के साथ योग होता है तो उस समय में दुर्घटनाओं की स्थिति बनती है। 
      शनि,मंगल और राहु,मंगल का योग एक विध्वंसकारी योग होता है जो बड़ी दुर्घटनाओं को उत्पन्न करता है। जिस समय गोचर में शनि और मंगल एक ही राशि में हो, आपस में राशि परिवर्तन कर रहे हों या षडाष्टक योग बना रहे हों तो ऐसे समय में एक्सीडैंट और सड़क हादसों की संख्या बहुत बढ़ जाती है ऐसा ही राहु मंगल के योग से भी होता है। जिन व्यक्तियों की कुंडली में शनि,मंगल और राहु,मंगल का योग होता है उन्हें जीवन में बहुत बार दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ता है अतः ऐसे व्यक्तियों को वाहन आदि का उपयोग बहुत सजगता से करना चाहिए। किसी व्यक्ति के साथ दुर्घटना होने में उस समय के गौचर ग्रहों और ग्रह दशाओं की बड़ी भूमिका होती है जिसकी चर्चा हम आगे कर रहें हैं” 
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 जानिए क्या आपकी पत्रिका में हैं दुर्घटना योग ??? 
 ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि जन्म पत्रिका से भी जाना जा सकता है दुर्घटनाओं के बारे में। यदि हमें पूर्व से जानकारी हो जाए तो हम संभलकर उससे बच सकते हैं। दुर्घटना तो होना है लेकिन क्षति न पहुँच कर चोट लग सकती है। जिस प्रकार हम चिलचिलाती धूप में निकलें और हमने छाता लगा रखा हो तो धूप से राहत मिलेगी, उसी प्रकार दुर्घटना के कारणों को जानकर उपाय कर लिए जाएँ तो उससे कम क्षति होगी। इसके लिए 6ठा और 8वाँ भाव महत्वपूर्ण माना गया है। इनमें बनने वाले अशुभ योग को ही महत्वपूर्ण माना जाएगा। किसी किसी की पत्रिका में षष्ठ भाव व अष्टमेश का स्वामी भी अशुभ ग्रहों के साथ हो तो ऐसे योग बनते हैं। वाहन से दुर्घटना के योग के लिए शुक्र जिम्मेदार होगा। लोहा या मशीनरी से दुर्घटना के योग का जिम्मेदार शनि होगा। आग या विस्फोटक सामग्री से दुर्घटना के योग के लिए मंगल जिम्मेदार होगा। 
     चौपायों से दुर्घटनाग्रस्त होने पर शनि प्रभावी होगा। वहीं अकस्मात दुर्घटना के लिए राहु जिम्मेदार होगा। अब दुर्घटना कहाँ होगी? इसके लिए ग्रहों के तत्व व उनका संबंध देखना होगा। 
  1. · षष्ठ भाव में शनि शत्रु राशि या नीच का होकर केतु के साथ हो तो पशु द्वारा चोट लगती है।
  2.  · षष्ठ भाव में मंगल हो व शनि की दृष्टि पड़े तो मशीनरी से चोट लग सकती है। 
  3. · अष्टम भाव में मंगल शनि के साथ हो या शत्रु राशि का होकर सूर्य के साथ हो तो आग से खतरा हो सकता है।
  4.  · चंद्रमा नीच का हो व मंगल भी साथ हो तो जल से सावधानी बरतना चाहिए।
  5.  · केतु नीच का हो या शत्रु राशि का होकर गुरु मंगल के साथ हो तो हार्ट से संबंधित ऑपरेशन हो सकता है।
  6.  · ‍शनि-मंगल-केतु अष्टम भाव में हों तो वाहनादि से दुर्घटना के कारण चोट लगती है। 
  7. · वायु तत्व की राशि में चंद्र राहु हो व मंगल देखता हो तो हवा में जलने से मृत्यु भय रहता है। 
  8. · अष्टमेश के साथ द्वादश भाव में राहु होकर लग्नेश के साथ हो तो हवाई दुर्घटना की आशंका रहती है। 
  9. · द्वादशेश चंद्र लग्न के साथ हो व द्वादश में कर्क का राहु हो तो अकस्मात मृत्यु योग देता है। 
  10. · मंगल-शनि-केतु सप्तम भाव में हों तो उस जातक का जीवनसाथी ऑपरेशन के कारण या आत्महत्या के कारण या किसी घातक हथियार से मृत्यु हो सकती है।
  11.  · अष्टम में मंगल-शनि वायु तत्व में हों तो जलने से मृत्यु संभव है। 
  12. · सप्तमेश के साथ मंगल-शनि हों तो दुर्घटना के योग बनते हैं। इस प्रकार हम अपनी पत्रिका देखकर दुर्घटना के योग को जान सकते हैं। यह घटना द्वितीयेश मारकेश की महादशा में सप्तमेश की अंतरदशा में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में घट सकती है। उसी प्रकार सप्तमेश की दशा में द्वितीयेश के अंतर में अष्टमेश या षष्ठेश के प्रत्यंतर में हो सकती है। जिस ग्रह की मारक दशा में प्रत्यंतर हो उससे संबंधित वस्तुओं को अपने ऊपर से नौ बार विधिपूर्वक उतारकर जमीन में गाड़ दें यानी पानी में बहा दें तो दुर्घटना योग टल सकता है। 

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कुंडली बताती हे दुर्घटना योग (एक्सीडेंट के कारण) —
  1.  पहनने-ओढ़ने के साथ तेज रफ्तार से वाहन चलाना यह सभी प्रमुख शौक होते हैं। नए से नया वाहन लेना यह हरेक का सपना होता है मगर क्या चाहने भर से या केवल सपना देखने से वाहन सुख मिलता है। नहीं! वाहन सुख के लिए भी ग्रह योगों का प्रबल होना जरूरी है।
  2.  यदि चतुर्थ भाव प्रबल हो, शुक्र की राशि हो या शुक्र की दृष्टि में हो तो नया व मनचाहा वाहन प्राप्त होता है।
  3.  यदि चतुर्थ भाव में शनि की राशि हो और शनि यदि नीचस्थ या पाप प्रभाव में हो तो सेकंडहैंड वाहन मिलता है। 
  4. यदि चतुर्थ का स्वामी लग्न, दशम या चतुर्थ में हो तो माता-पिता के सहयोग से, उनके नाम का वाहन चलाने को मिलता है। च
  5. तुर्थेश यदि कमजोर हो तो वाहन सुख या तो नहीं मिलता या फिर दूसरे का वाहन चलाने को मिलता है। 
  6. चतुर्थेश युवावस्था में हो (डिग्री के अनुसार) तो वाहन सुख जल्दी मिलता है, वृद्ध हो तो देर से वाहन सुख मिलता है।  
  • वाहन की खराबी : चतुर्थेश यदि पाप ग्रह हो, कमजोर हो, पाप प्रभाव में हो तो वाहन प्राप्त होने पर भी बार-बार खराब हो जाता हैं। मंगल खराब हो तो (चतुर्थेश होकर) इंजन में गड़बड़ी, शनि के कारण कल-पुर्जों में खराबी, राहु की खराबी से टायर पंचर होना व अन्य ग्रहों की कमजोरी से वाहन की कार्यप्रणाली में गड़बड़ी आना दृष्टिगत होता है। 
  •  दुर्घटना योग : वाहन है तो दुर्घटना, चोट-खरोंच का भय बना ही रहता है। यदि सेंटर हाउस का स्वामी, लग्न, अष्टम भाव मजबूत है मगर तीसरा भाव या उसका स्वामी कमजोर हो तो वाहन के साथ छोटी-मोटी टूट-फूट हो सकती है, व्यक्ति को भी छोटी-मोटी चोट लग सकती है। यदि लग्न व सेंटर हाउस का स्वामी दोनों पाप प्रभाव में हो, तीसरा भाव खराब हो मगर अष्टम भाव मजबूत हो तो दुर्घटना तो होती है, मगर जान को खतरा नहीं रहता। यदि अष्टम भाव व तीसरा भाव कमजोर हो तो भयंकर दुर्घटना के योग बन हैं जिससे जान पर भी बन सकती है। शनि के कारण दुर्घटना में पैरों पर चोट लग सकती है, जब कि मंगल सिर पर चोट करता है। 
  •  उपाय : यदि कुंडली में एक्सीडेंट योग दिखें तो उस ग्रह को मजबूत करें, वाहन जीवन भर सावधानी से चलाएँ और वाहन के रख-रखाव का विशेष ध्यान रखें। इंश्योरेंस अवश्य कराएँ। 
  •  विशेष : वाहन सुख प्राय: चतुर्थेश की दशा-महादशा-अंतरदशा में प्राप्त होता है। उसी तरह दुर्घटना योग भी तृतीयेश-अष्टमेश की दशा-महादशा में बनते है अत: पूर्वानुमान कर सावधानी बरती जा सकती है। 

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जानिए कैसे लगाएं जन्म कुंडली से दुर्घटना का पूर्व अनुमान -- 
 जब किसी जातक की कम कुंडली में लग्न, चन्द्रमा और सूर्य :12 वा , 8 वा , ४ भाव दुर्घटना का संबंध लग्न और लग्नेश से रहता है। लग्न जातक के स्वयं का होता है। लग्न में शुभ ग्रह होना चाहिये हैं। अशुभ ग्रह हानि पहुंचाते हैं। शुभ ग्रह स्थित होने से ,और दृष्टि होने से सुरक्षा होती है। अकारक ग्रह या मारक ग्रह जब भी लग्न या लग्नेश पर गोचर करता है तब दुर्घटना होने के योग बनते है। अकारक ग्रह या मारक ग्रह की यदि दशा-अंतर्दशा चल रही हो, तो जातक को कष्ट और दुर्घटना होने के योग बनते है। मंगल ग्रह जातक को दुर्घटना में अधिक चोट आती या रक्त भी बहता है।
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 ऐसे जानिए दुर्घटना का समय :
 ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि ग्रह का गोचर लग्न पर हो ,वही समय दुर्घटना का होता है। इसी तरह से आने वाली दुर्घटना का पूर्व अनुमान लगाया जा सकता है। ग्रह मंगल और शनि दुर्घटनाओं के योग बनाते हैं दुर्घटनाओं के लिए कुछ और योग :--- लग्न या दूसरे घर में राहु और मंगल, लग्न में शनि, लग्न में मंगल ग्रह, तीसरे घर में मंगल या शनि ग्रह ,5 वीं भाव में, मंगल या शनि .दशा अवधि:12 वा , 8 वा , 4 भाव की ग्रह की महादशा ,अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा,अवधि के दौरान दुर्घटना हो सकती है या अस्पताल में भर्ती हो सकते है। 
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कुछ विशेष योग – 
 यदि कुंडली में शनि मंगल का योग हो और शुभ प्रभाव से वंछित हो तो जीवन में चोट लगने और दुर्घटनाओं की स्थिति बार बार बनती है। शनि मंगल का योग यदि अष्टम भाव में बने तो अधिक हानिकारक होता है ऐसे व्यक्ति को वाहन बहुत सावधानी से प्रयोग करना चाहिए। यदि कुंडली में शनि और मंगल का राशि परिवर्तन हो रहा हो तब भी चोट आदि लगने की समस्या समय समय पर आती है। कुंडली में राहु, मंगल की युति भी दुर्घटनाओं को बार बार जन्म देती है यह योग अष्टम भाव में बनने पर बहुत समस्या देता है। यदि मंगल कुंडली के आठवें भाव में हो तो भी एक्सीडेंट आदि की घटनाएं बहुत सामने आती हैं। मंगल का नीच राशि (कर्क) में होना तथा मंगल केतु का योग भी बार बार दुर्घटनाओं का सामना कराता है। 
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जानिए जन्म कुंडली से दुर्घटना काल – 
 एक्सीडैंट की घटनाएं कुछ विशेष ग्रहस्थिति और दशाओं में बनती हैं--- ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि व्यक्ति की कुंडली में मंगल जिस राशि में हो उस राशि में जब शनि गोचर करता है तो ऐसे में एक्सीडैंट की सम्भावना बनती हैं। कुंडली में शनि जिस राशि में हो उस राशि में मंगल गोचरवश जब आता है तब चोट आदि लगने की सम्भावना होती है। जब कुंडली में मंगल जिस राशि में हो उसमे राहु गोचर करे या राहु जिस राशि में कुंडली में स्थित हो उसमे मंगल गोचर करे तो भी एक्सीडैंट की स्थिति बनती है। जब जन्मकुंडली में दशावश राहु और मंगल का योग हो अर्थात राहु और मंगल की दशाएं एक साथ चल रही हों ( राहु में मंगल या मंगल में राहु ) तो भी एक्सीडेंट होने का योग बनता है ऐसे समय में वाहन चलाने में सतर्कता बरतनी चाहिए | =========================================================== 
जानिए आपकी जन्म कुंडली में दुर्घटना होने के योग--- 
 दुर्घटना का जिक्र आते ही जिन ग्रहों का सबसे पहले विचार करना चाहिए वे हैं शनि, राहु और मंगल यदि जन्मकुंडली में इनकी स्थिति अशुभ है (6, 8, 12 में) या ये नीच के हों या अशुभ नवांश में हों तो दुर्घटनाओं का सामना होना आम बात है। 
  1. शनि : ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि शनि का प्रभाव प्राय: नसों व हड्डियों पर रहता है। शनि की खराब स्थिति में नसों में ऑक्सीजन की कमी व ‍हड्डियों में कैल्शियम की कमी होती जाती है अत: वाहन-मशीनरी से चोट लगना व चोट लगने पर हड्डियों में फ्रैक्चर होना आम बात है। यदि पैरों में बार-बार चोट लगे व हड्डी टूटे तो यह शनि की खराब स्थिति को दर्शाता है। 
  2.  राहु : राहु का प्रभाव दिमाग व आँखों पर रहता है। कमर से ऊपरी हिस्से पर ग्रह विशेष प्रभाव रखता है। राहु की प्रतिकूल स्थिति जीवन में आकस्मिकता लाती है। दुर्घटनाएँ, चोट-चपेट अचानक लगती है और इससे मनोविकार, अंधापन, लकवा आदि लगना राहु के लक्षण हैं। पानी, भूत-बाधा, टोना-टोटका आदि राहु के क्षेत्र में हैं। 
  3.  मंगल : ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि मंगल हमारे शरीर में रक्त का प्रतिनिधि है। मंगल की अशुभ स्थिति से बार-बार सिर में चोट है। खेलते-दौड़ते समय गिरना आम बात है और इस स्थिति में छोटी से छोटी चोट से भी रक्त स्राव होता जाता है। रक्त संबंधी बीमारियाँ, मासिक धर्म में अत्यधिक रक्त स्राव भी खराब मंगल के लक्षण हैं। अस्त्र-शस्त्रों से दुर्घटना होना, आक्रमण का शिकार होना इससे होता है।

 क्या करें :
 मंगलवार का व्रत करें, मसूर की दाल का दान करें। उग्रता पर नियंत्रण रखें। मित्रों की संख्या बढ़ाएँ। मद्यपान व माँसाहार से परहेज करें। अपनी ऊर्जा को रचनात्मक दिशा दें।
 कब-कब होगी परेशानी : 
जब-जब इन ग्रहों की महादशा, अंतर्दशा या प्रत्यंतर दशा आएगी, तब-तब संबंधित दुर्घटनाओं के योग बनते हैं। इसके अलावा गोचर में इन ग्रहों के अशुभ स्थानों पर जाने पर, स्थान बदलते समय भी ऐसे कुयोग बनते हैं अत: इस समय का ध्यान रखकर संबंधित उपाय करना नितांत आवश्यक है। 
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जन्म कुंडली में आठवाँ भाव अथवा अष्टमेश, मंगल तथा राहु से पीड़ित होने पर दुर्घटना होने के योग बनते हैं. सारावली के अनुसार शनि, चंद्रमा और मंगल दूसरे, चतुर्थ व दसवें भाव में होने पर वाहन से गिरने पर बुरी दुर्घटना देते हैं. जन्म कुंडली में सूर्य तथा मंगल चतुर्थ भाव में पापी ग्रहों से दृष्ट होने पर दुर्घटना के योग बनते हैं. सूर्य दसवें भाव में और चतुर्थ भाव से मंगल की दृष्टि पड़ रही हो तब दुर्घटना होने के योग बनते हैं. निर्बली लग्नेश और अष्टमेश की चतुर्थ भाव में युति हो रही हो तब वाहन से दुर्घटना होने की संभावना बनती है. लग्नेश कमजोर हो और षष्ठेश, अष्टमेश व मंगल के साथ हो तब गंभीर दुर्घटना के योग बनते हैं. जन्म कुंडली में लग्नेश कमजोर होकर अष्टमेश के साथ छठे भाव में राहु, केतु या शनि के साथ स्थित होता है तब गंभीर रुप से दुर्घटनाग्रस्त होने के योग बनते हैं. 
   जन्म कुंडली में आत्मकारक ग्रह पापी ग्रहों की युति में हो या पापकर्तरी में हो तब दुर्घटना होने की संभावना बनती है. जन्म कुंडली का अष्टमेश सर्प द्रेष्काण में स्थित होने पर वाहन से दुर्घटना के योग बनते हैं. जन्म कुंडली में यदि सूर्य तथा बृहस्पति पीड़ित अवस्था में स्थित हों और इन दोनो का ही संबंध त्रिक भाव के स्वामियों से बन रहा हो तब वाहन दुर्घटना अथवा हवाई दुर्घटना होने की संभावना बनती है. जन्म कुंडली का चतुर्थ भाव तथा दशम भाव पीड़ित होने से व्यक्ति की गंभीर रुप से दुर्घटना होने की संभावना बनती है. 
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ऐसे बनते हैं घाव तथा चोट लगने के योग --- 
 यह मंगल की पीड़ित अवस्था के कारण होने की संभावना अधिक रहती है. जन्म कुंडली में यदि मंगल लग्न में हो और षष्ठेश भी लग्न में ही स्थित हो तब शरीर पर चोटादि लगने की संभावना अधिक होती है. जन्म कुंडली में मंगल पापी होकर आठवें या बारहवें भाव में स्थित होने पर चोट लगने की संभावना बनती है. जन्म कुंडली में यदि मंगल, शनि और राहु की युति हो रही हो तब भी चोट अथवा घाव होने की संभावना बनती है. चंद्रमा दूसरे भाव में हो, मंगल चतुर्थ भाव में हो और सूर्य दसवें भाव में स्थित हो तब चोट लगने की संभावना बनती है. 
    जन्म कुंडली के चतुर्थ भाव में सूर्य स्थित हो, आठवें भाव में शनि स्थित हो और दसवें भाव में चंद्रमा स्थित हो तब चोट लगने की अथवा घाव होने की संभावना बनती है. जन्म कुंडली के छठे भाव में मंगल तथा चंद्रमा की युति हो तब भी चोट लगने की संभावना बनती है. चंद्रमा तथा सूर्य जन्म कुंडली के तीसरे भाव में होने से भी चोट लगने की संभावना बनती है. कुंडली का लग्नेश तथा अष्टमेश शनि और राहु या केतु के साथ आठवें भाव में स्थित हो तब भी चोट लगने की संभावना बनती है. लग्नेश, चतुर्थेश तथा अष्टमेश की युति होने पर भी चोट लगने की संभावना बनती है. जन्म कुंडली के लग्न में ही छठे भाव का स्वामी राहु या केतु के साथ स्थित हो. जन्म कुंडली के छठे अथवा बारहवें स्थान में शनि व मंगल की युति हो रही हो. जन्म कुंडली के लग्न में पाप ग्रह हो या लग्नेश की पापी ग्रह से युति हो और मंगल दृष्ट कर रहा हो. 
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30 नवंबर 2017 से आएगी कमी--- 
 ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री का कहना है कि 30 नवंबर से इन मामलों में कुछ कमी आ सकती है क्योंकि मंगल कन्या राशि से हटकर तुला में प्रवेश करेगा। हालांकि बहुत ज्यादा फर्क तो नहीं, लेकिन दुर्घटनाओं के मामले में राहत जरूर मिलेगी। पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इन उपायों से होगा लाभ-- यदि आपकी कुंडली में उपरोक्त ग्रहस्थितियां बन रही हैं या बार बार दुर्घटनाओं का सामना हो रहा है तो यह उपाय श्रद्धा से करें लाभ होगा। .. ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि ग्रहों के इस मेल से बचने के लिए भगवान् हनुमान जी की आराधना करें। श्वान की सेवा करें। 
    ज्योतिष शास्त्र की मानें तो यह शनि की बुरी दृष्टि से बचने का सबसे सरलतम किंतु स्बासे ज्यादा प्रभावशाली उपाय है। सूर्य को जल दें और सूर्य गायत्री मंत्र का जाप करें। अधिक बेहतर है कि सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करें। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया कि शनि उपासना अवश्य करें। शनि के बीज मंत्र का कम से कम एक माला जाप करें (ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः)। इसके अलावा शनि उपवास कर सकते हैं, शनि चालीसा का पाठ कर सकते हैं और यदि संभव हो तो घर पर शनि शांति पाठ या शनि यज्ञ भी करवाया जाना फलदायी सिद्ध होगा। ये है मंत्र- ॐ भास्कराय विद्महे, महातेजाय धीमहि तन्नो सूर्य:प्रचोदयात्....

जानिए कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा और पूजा विधि, दीप दान का क्यों है विशेष महत्व

इस वर्ष कार्तिक पूर्ण‍िमा 2017 की पूजा इस साल 4 नवंबर 2017 को मनाई जाएगी| सनातन धर्म में पूर्णिमा को शुभ , मंगल और फलदायी माना गया है। हिन्दू पंचांग केअनुसार वर्ष में 16 पूर्णिमा होती है और इस 16 पूर्णिमा में वैसाख, माघ और कार्तिक पूर्णिमा को स्नान-दान के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा शनिवार 4 नवंबर 2017 को मनाई जाएगी। ऐसा कहा जाता है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने अपना पहला अवतार लिया था. वे मत्स्य यानी मछली के रूप में प्रकट हुए थे. वैष्णव परंपरा में कार्तिक माह को दामोदर माह के रूप में भी जाना जाता है. बता दें कि श्रीकृष्ण के नामों में से एक नाम दामोदर भी है. कार्तिक माह में लोग गंगा और अन्य पवित्र नदियों में स्नान आदि करते हैं. कार्तिक महीने के दौरान गंगा में स्नान करने की शुरुआत शरद पूर्णिमा के दिन से होती है और कार्तिक पूर्णिमा पर समाप्त होती है. कार्ती पूर्णिमा के दौरान उत्सव मनाने की शुरुआत प्रबोधिनी एकादशी के दिन से होती है. कार्तिक महीने मे पूर्णिमा शुक्ल पक्ष के दौरान एकदशी ग्यारहवें दिन और पूर्णिमा पंद्रहवीं दिन होती है. इसलिए कार्तिक पूर्णिमा उत्सव पांच दिनों तक चलता है | 
kartik-purnima-2017     ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की पूर्णिमा यानी चन्द्रमा की पूर्ण अवस्था। पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा से जो किरणें निकलती हैं वह काफी सकारात्मक होती हैं और सीधे दिमाग पर असर डालती हैं। चूंकि चन्द्रमा पृथ्वी के सबसे अधिक नजदीक है, इसलिए पृथ्वी पर सबसे ज्यादा प्रभाव चन्द्रमा का ही पड़ता है। भविष्य पुराण के अनुसार वैशाख, माघ और कार्तिक माह की पूर्णिमा स्नान-दान के लिए श्रेष्ठ मानी गई है। इस पूर्णिमा में जातक को नदी या अपने स्नान करने वाले जल में थोड़ा सा गंगा जल मिलाकर स्नान करना चाहिए और इसके बाद भगवान विष्णु का विधिवत पूजन करना चाहिए। पूरे दिन उपवास रखकर एक समय भोजन करें। गाय का दूध, केला, खजूर, नारियल, अमरूद आदि फलों का दान करना चाहिए। ब्राह्मण, बहन, बुआ आदि को कार्तिक पूर्णिमा के दिन दान करने से अक्षय पुण्य मिलता है। कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन वृषोसर्ग व्रत रखा जाता है। इस दिन विशेष रूप से भगवान कार्तिकेय और भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान हैं। यह व्रत शत्रुओं का नाश करने वाला माना जाता है। इसे नक्त व्रत भी कहा जाता है।इस दिन ब्रह्मा जी का ब्रह्मसरोवर पुष्कर में अवतरण भी हुआ था। अतः कार्तिक पूर्णिमा के दिन पुष्कर स्नान, गढ़गंगा, उज्जैन,कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और रेणुकातीर्थ में स्नान दान का विषेश महत्व माना जाता है।
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कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान—-
 कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है. अन्न, धन एव वस्त्र दान का बहुत महत्व बताया गया है इस दिन जो भी आप दान करते हैं उसका आपको कई गुणा लाभ मिलता है. मान्यता यह भी है कि आप जो कुछ आज दान करते हैं वह आपके लिए स्वर्ग में सरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में आपको प्राप्त होता है. ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है. महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है.
         शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें. आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें. नारद पुराण के अनुसार कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन स्नान आदि कर उपवास रखते हुए भगवान कार्तिकेय की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। इसी दिन प्रदोष काल में दीप दान करते हुए संसार के सभी जीवों के सुखदायक माने जाने वाले वृषोसर्ग व्रत का पालन करना चाहिए। इस दिन दीपों का दर्शन करने वाले जंतु जीवन चक्र से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त करते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन अगर संभव हो तो किसी पवित्र नदी में स्थान करना चाहिए। कार्तिक पूर्णिमा के दिन चंद्र उदय के बाद वरुण, अग्नि और खड्गधारी कार्तिकेय की गंध, फूल, धूप, दीप, प्रचुर नैवेद्य, अन्न, फल, शाक आदि से पूजा कर हवन करना चाहिए। 
        इसके बाद ब्राह्मणों को भोजन करवा कर उन्हें दान देना चाहिए। घर के बाहर दीप जलाना चाहिए और उसके पास एक छोटा सा गड्ढा खोदकर उसे दूध से भरना चाहिए। गड्ढे में मोती से बने नेत्रों वाली सोने की मछली डालकर उसकी पूजा करते हुए “महामत्स्याय नमः” मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। पूजा के बाद सोने की मछली को ब्राह्मण को दान कर देनी चाहिए। कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख सम्प्रदाय के लोगों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था. सिख सम्प्रदाय को मानने वाले सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सगंध लेते हैं. अतः इस दिन गुरू नानक जयन्ती भी मनाई जाती है । 
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दान और पूजा क्यों करें???? 
 इस दिन चंद्रोदय पर शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का अवश्य पूजन करना चाहिए। कार्तिकी पूर्णिमा की रात्रि में व्रत करके वृष (बैल) दान करने से शिव पद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ, घी आदि का दान करने से सम्पत्ति बढ़ती है। इस दिन उपवास करके भगवान का स्मरण, चिंतन करने से अग्निष्टोम यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है तथा सूर्यलोक की प्राप्ति होती है। इस दिन मेष (भेड़) दान करने से ग्रहयोग के कष्टों का नाश होता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इस दिन कन्यादान से ‘संतान व्रत’ पूर्ण होता है। कार्तिकी पूर्णिमा से प्रारम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। इस दिन कार्तिक के व्रत धारण करने वालों को ब्राह्मण भोजन, हवन तथा दीपक जलाने का भी विधान है। इस दिन यमुना जी पर कार्तिक स्नान की समाप्ति करके राधा-कृष्ण का पूजन, दीपदान, शय्यादि का दान तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा वर्ष की पवित्र पूर्णमासियों में से एक है  =============================================================================== 
हिन्दू धर्म के वेदो, महापुराणों और शास्त्रो ने कार्तिक माह को हिंदी वर्ष का पवित्र और पावन महीना बताया है। कार्तिक माह की शुरुवात शरद या आश्विन पूर्णिमा के दिन से होती है जो कार्तिक पूर्णिमा के दिन खत्म होती है। कार्तिक माह को स्नान माह भी कहा जाता है क्योकि इस दौरान लोग प्रतिदिन सुबह में पवित्र नदियों और तालाबों में स्नान कर, पूजा अर्चना व् दान करते है। भीष्म पंचक और विष्णु पंचक का व्रत भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन समाप्त होता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की वैदिक काल में कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक दैत्य का वध किया था, इसलिए इसे त्रिपुरी पूर्णिमा भी कहते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान विष्णु का मत्स्यावतार भी हुआ था। इस दिन ब्रह्मा जी का ब्रह्मसरोवर पुष्कर में अवतरण भी हुआ था। अतः कार्तिक पूर्णिमा के दिन पुष्कर स्नान, गढ़गंगा, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार और रेणुकातीर्थ में स्नान दान का विषेश महत्व माना जाता है। इस दिन अगर भरणी-सा कृतिका नक्षत्र पड़े, तो स्नान का विशेष फल मिलता है। 
         इस दिन कृतिका नक्षत्र हो तो यह महाकार्तिकी होती है, भरणी हो तो विशेष स्नान पर्व का फल देती है और यदि रोहिणी हो तो इसका फल और भी बढ़ जाता है। इस बार 28 नवम्बर को कृतिका नक्षत्र है। जो व्यक्ति पूरे कार्तिक मास स्नान करते हैं उनका नियम कार्तिक पूर्णिमा को पूरा होता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन प्रायरू श्री सत्यनारायण व्रत की कथा सुनी जाती है। सायंकाल देव-मंदिरों, चैराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों तथा तुलसी के पौधों के पास दीपक जलाए जाते हैं और गंगाजी को भी दीपदान किया जाता है। कार्तिकी में यह तिथि देव दीपावली-महोत्सव के रूप में मनाई जाती है।
      चान्द्रायणव्रत की समाप्ति भी आज के दिन होती है। कार्तिक पूर्णिमा से आरम्भ करके प्रत्येक पूर्णिमा को व्रत और जागरण करने से सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नदी आदि पवित्र नदियों के समीप स्नान के लिए सहस्त्रों नर-नारी एकत्र होते हैं, जो बड़े भारी मेले का रूप बन जाता है। इस दिन गुरु नानक देव की जयन्ती भी मनाई जाती है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कार्तिक माह को दामोदर माह भी कहा जाता है क्योकि भगवान विष्णु को दामोदर के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु मत्स्य अवतार में अवतरित हुए थे। कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव जी ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस का वध किया था। त्रिपुरासुर के वध के पश्चात समस्त लोको के देवी देवताओ ने इस प्रसन्नता में गंगा नदी के किनारे असंख्य दिये जलाये थे जिस कारण कार्तिक पूर्णिमा को देव दीपावली भी कहा जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा नदी के किनारे वाराणसी में देव दीपावली मनाया जाता है।
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 जानिए वर्ष 2017 में कार्तिक पूर्ण‍िमा पूजन विधि और समय--- 
 कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान करने के बाद भगवान विष्णु की पूजा-अराधना करनी चाहिए | पूर्णिमा तिथि शुरू - 3 नवंबर 2017 13:46 से 4 नवंबर 2017 10.52 मिनट तक है. अगर संभव हो पाए तो गंगा स्नान भी करें. अगर हो सके तो पूरे दिन या एक समय व्रत जरूर रखें. कार्तिक पूर्ण‍िमा के दिन खाने में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए. अगर हो सके तो ब्राह्मणों को दान दें. केवल इतना ही नहीं, शाम को चंद्रमा को अर्घ्य देने से पुण्य की प्राप्त‍ि होती है | गंध, अक्षत, पुष्प, नारियल, पान, सुपारी, कलावा, तुलसी, आंवला, पीपल के पत्तों से गंगाजल से पूजन करें। पूजा गृह, नदियों, सरोवरों, मन्दिरों में दीपदान करें। घर के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व) में मिट्टी का दीपक अवश्य जलाएं। इससे हमेशा संतति सही रास्ते पर चलेगी। धन की कभी भी कमी नहीं होगी। सुख, समृद्धि में बढ़ोतरी होगी। जीवन में ऊब, उकताहट, एकरसता दूर करने का अचूक उपाय। व्रत से ऐक्सिडेंट-अकाल मृत्यु कभी नहीं होंगे। बच्चे बात मानने लगेंगे। परिवार में किसी को पानी में डूबने या दुर्घटनाग्रस्त होने का खतरा नहीं होगा। बुरे वक्त में लिया कर्ज उतर जाएगा। आकस्मिक नेत्र रोग से बचाव होगा। नए मकान, वाहन आदि खरीदने के योग बनेंगे।
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 कार्तिक पूर्णिमा व्रत कथा ---- 
 एक बार त्रिपुर नामक राक्षस ने कठोर तपस्या की, त्रिपुर की तपस्या का प्रभाव जड़-चेतन, जीव-जन्तु तथा देवता भयभीत होने लगे. उस वक्त देवताओं ने त्रिपुर की तपस्या को भंग करने के लिए खूबसूरत अप्सराएं भेजीं लेकिन इसके बावजूद भी वह त्रिपुर की तपस्या को विफल करने में असफल रहीं. त्रिपुर की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी स्वयं उसके सामने प्रकट हुए और उन्होंने त्रिपुर से वर मांगने के लिए कहा. त्रिपुर ने वर मांगते हुए कहा कि 'न मैं देवताओं के हाथ से मरु, न मनुष्यों के हाथ से. ब्रह्मा जी से वर कती प्राप्ति होने के बाद त्रिपुर निडर होकर लोगों पर अत्याचार करने लगा. लोगों पर अत्याचार करने के बाद भी जब उसका मन नहीं भरा तो उसने कैलाश पर्वत पर ही चढ़ाई कर दी. यही कारण था कि त्रिपुर और भगवान शिव के बीच युद्ध होने लगा. भगवान शिव और त्रिपुर के बीच लंबे समय तक युद्ध चलने के बाद अंत में भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु की सहायता से त्रिपुर का वध कर दिया. इस दिन से ही क्षीरसागर दान का अनंत माहात्म्य माना जाता है.
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कार्तिक पूर्णिमा व्रत,पूजा विधि तथा महत्व --- 
 कार्तिक पूर्णिमा को स्नान आदि से निवृत होकर भगवान विष्णु की पूजा-आरती करनी चाहिए। पूजा-अर्चना की समाप्ति के बाद अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए । दान ब्राह्मणो, बहन, भांजे आदि को देना चाहिए। ऐसी मान्यता है की कार्तिक पूर्णिमा के दिन एक समय ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की शाम के समय वसंतबान्धव विभो शीतांशो स्वस्ति न: कुरु इस मंत्र का उच्चारण करते हुए चाँद देव को अर्घ्य देना चाहिए। एकादशी व् तुलसी विवाह से चली आ रही पंचक व्रत कार्तिक पूर्णिमा के दिन समाप्त होती है। तो प्रेम से बोलिए भगवान विष्णु जी की जय हो। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार मास के लिए योगनिद्रा में लीन होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी को उठते हैं और पूर्णिमा से कार्यरत हो जाते हैं। इसीलिए दीपावली को लक्ष्मीजी की पूजा बिना विष्णु, श्रीगणेश के साथ की जाती है। लक्ष्मी की अंशरूपा तुलसी का विवाह विष्णु स्वरूप शालिग्राम से होता है। इसी खुशी में देवता स्वर्गलोक में दिवाली मनाते हैं इसीलिए इसे देव दिवाली कहा जाता है।
 सफलता का मंत्र--- ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदम…पूर्णात, पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय…..पूर्णमेवावशिष्यते
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 क्यों किया जाता हें कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान ??? 
 कार्तिक पूर्णिमा पर नदी स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बड़ी संख्या में देश की सभी प्रमुख नदियों पर श्रद्धालु स्नान के लिए पहुंचते हैं। प्राचीन काल से ही यह प्रथा चली आ रही है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान का बड़ा ही महत्व है। आरोग्य प्राप्ति तथा उसकी रक्षा के लिए भी प्रतिदिन स्नान लाभदायक होता है। फिर भी माघ वैशाख तथा कार्तिक मास में नित्य दिन के स्नान का खास महत्व है। खासकर गंगा स्नान से। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की यह व्रत शरद पूर्णिमा से आरंभ होकर कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को संपन्न किया जाता है। इसमें स्नान कुआं, तालाब तथा नदी आदि में करना ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है। कुरुक्षेत्र, अयोध्या तथा काशी आदि तीर्थों पर स्नान का और भी अधिक महत्व है। भारत के बड़े-बड़े शहरों से लेकर छोटी-छोटी बस्तियों में भी अनेक स्त्रीपुरुष, लड़के-लड़कियां कार्तिक स्नान करके भगवान का भजन तथा व्रत करते हैं। सायंकाल के समय मंदिरों, चौराहों, गलियों, पीपल के वृक्षों और तुलसी के पौधों के पास दीप जलाये जाते हैं। लंबे बांस में लालटेन बांधकर किसी ऊंचे स्थान पर कंडीलें प्रकाशित करते हैं। इन व्रतों को स्त्रियां तथा अविवाहित लड़कियां बड़े मनोयोग से करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे कुवांरी लड़कियों को मनपसंद वर मिलता है। तथा विवाहित स्त्रियों के घरों में सुख-समृद्धि आती है।
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 जानिए कार्तिक पूर्णिमा के दिन नदी स्नान क्यों किया जाता है? इसके कई कारण हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास को बहुत पवित्र और पूजा-अर्चना के लिए श्रेष्ठ माना गया है। पुण्य प्राप्त करने के कई उपायों में कार्तिक स्नान भी एक है। पुराणों के अनुसार इस दिन ब्रह्ममुहूर्त में किसी पवित्र नदी में स्नानकर भगवान विष्णु या अपने इष्ट की आराधना करनी चाहिए। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की ऐसा माना जाता है कलियुग में कार्तिक पूर्णिमा पर विधि-विधान से नदी स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि कार्तिक के समान दूसरा कोई मास नहीं, सत्ययुग के समान कोई युग नही, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। 
       कार्तिक महीने में नदी स्नान का धार्मिक महत्व तो है साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है। वर्षा ऋतु के बाद मौसम बदलता है और हमारा शरीर नए वातावरण में एकदम ढल नहीं पाता। ऐसे में कार्तिक मास में सुबह-सुबह नदी स्नान करने से हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है जो कि पूरा दिन साथ रहती है। जिससे जल्दी थकावट नहीं होती और हमारा मन कहीं ओर नहीं भटकता। साथ ही जल्दी उठने से हमें ताजी हवा से प्राप्त होती है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही फायदेमंद होती है। ऐसे में ताजी और पवित्र नदी स्नान से कई शारीरिक बीमारियां भी समाप्त हो जाती है।ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।
 ====================================================================== कार्तिक पूर्णिमा का क्यों हें इतना महत्व —- 
 ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की हिंदू धर्म में पूर्णिमा का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष पंद्रह पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर १६ हो जाती है।कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है । इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है।
        इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है. जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है. इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी.वैष्णव मत में इस कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है क्योंकि इस दिन ही भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था. इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी (Maha kartiki Purnima) भी कहा गया है. 
       यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है. अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है. इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है. कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है | 
        ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा(KartikTripuri Poornima) के नाम से भी जाना जाता है. इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे. ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका नक्षत्र में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है. इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है.शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इसमें कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
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दीप दान का है महत्व---- 
 मत्स्य पुराण के अनुसार, कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही संध्या के समय मत्स्यावतार हुआ था। इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप-दान आदि का फल दस यज्ञों के समान होता है। इसलिए इस दिन ब्राह्मणों को विधिवत आदर भाव से निमंत्रित करके भोजन कराना चाहिए। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की इस दिन संध्या काल में त्रिपुरोत्सव करके दीप दान करने से पुर्नजन्मादि कष्ट नहीं होता। इस तिथि में कृतिका में विश्व स्वामी का दर्शन करने से ब्राह्मण सात जन्म तक वेदपाठी और धनवान होता है। कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि के वक्त व्रत करके वृषदान करने से शिवप्रद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ, घी आदि का दान करने से सम्पति बढ़ती है। कार्तिक पूर्णिमा से आरंभ करके प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं।======================================================================================= 
सिख धर्म के लिए भी खास है कार्तिक पूर्णिमा का दिन----- 
 सिख धर्म के दस गुरुओं की कड़ी में प्रथम हैं गुरु नानक। गुरु नानकदेव से मोक्ष तक पहुँचने के एक नए मार्ग का अवतरण होता है। इतना प्यारा और सरल मार्ग कि सहज ही मोक्ष तक या ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है।गुरू नानक जयन्‍ती, 10 सिक्‍ख गुरूओं के गुरू पर्वों या जयन्तियों में सर्वप्रथम है। यह सिक्‍ख पंथ के संस्‍थापक गुरू नानक देव, जिन्‍होंने धर्म में एक नई लहर की घोषणा की, की जयन्‍ती है।गुरू नानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) है। इनके अनुयायी इन्हें गुरु नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। गुरु नानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु माने जाते हैं। इन्हें सिख धर्म का संस्थापक भी माना जाता है। गुरु नानक जी का जन्मदिन प्रकाश दिवस के रूप में "कार्तिक पूर्णिमा" के दिन मनाया जाता है। 
      इस वर्ष गुरु नानक जयंती 06 नवंबर, 2014 को मनाई जाएगी। इस दिन जगह-जगह जुलूस निकाले जाते हैं और गुरुद्वारों में "गुरु ग्रंथ साहिब" का अखंड पाठ किया जाता है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि का विशेष महत्व होता है. ऐसा कहा जाता है कि इस दिन दान का फल दोगुना या उससे भी ज्यादा मिलता है.शायद आप जानते नहीं होंगे कि कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख धर्म के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था| ""जो बोले सो निहाल सतश्री अकाल"" जन्म - श्री गुरु नानक देव जी का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी गांव में कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन 1469 को राएभोए के तलवंडी नामक स्थान में, कल्याणचंद (मेहता कालू) नाम के एक किसान के घर गुरु नानक का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम तृप्ता था। तलवंडी को ही अब नानक के नाम पर ननकाना साहब कहा जाता है, जो पाकिस्तान में है...गुरु नानक देव जी बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। बहुत कम आयु से ही उन्होंने भ्रमण द्वारा अपने उपदेशों और विचारों को जनता के बीच रखा।
        गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु - सभी के गुण समेटे हुए थे। नानक सर्वेश्वरवादी थे। मूर्तिपूजा को उन्हांने निरर्थक माना। रूढ़ियों और कुसंस्कारों के विरोध में वे सदैव तीखे रहे। ईश्वर का साक्षात्कार, उनके मतानुसार, बाह्य साधनों से नहीं वरन् आंतरिक साधना से संभव है। उनके दर्शन में वैराग्य तो है ही साथ ही उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी नजर डाली है। संत साहित्य में नानक अकेले हैं, जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है।नानक अच्छे कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा "बहता नीर" थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत, और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे। सिक्‍ख समाज में कई धर्मों के चलन व विभिन्‍न देवताओं को स्‍वीकार करने के प्रति अरुचि ने व्‍यापक यात्रा किए हुए नेता को धार्मिक विविधता के बंधन से मुक्‍त होने, तथा एक प्रभु जो कि शाश्‍वत सत्‍य है के आधार पर धर्म स्‍थापना करने की प्रेरणा दी।
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इस कार्तिक पूर्णिमा पर करें ये उपाय/टोटके---
(कार्तिक पूर्णिमा को ये उपाय करने से मां लक्ष्मी होगी प्रसन्न)--- ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कार्तिक मास में शुद्ध घी, तिलों के तेल और सरसों के तेल का दीपक जलाने से अश्वतमेघ यज्ञ जितना पुण्य प्राप्त होता है। इस माह में दीपदान करने से भगवान विष्णुक भी प्रसन्नन होते हैं। हिंदू धर्म शास्त्रों में भी कहा गया है कि – मित्राण्यमित्रतां यान्ति यस्य न स्यु: कपर्दका:। अर्थात किसी व्यक्ति के पास धन-संपत्ति का अभाव होने पर उसके मित्र भी उसका साथ छोड़ देते है। प्राचीन मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जी को ऐश्वर्य और वैभव की देवी कहा गया है। परंतु व्यक्ति को वैभव, ऐश्वर्य के साथ आनंद और सुख तभी मिलता है जब वह पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ धन कमाता है। 
  •  - इस महीने में लक्ष्मी जी के समक्ष दीप जलाने का भी अत्यधिक महत्व है। यह दीप जीवन के अंधकार को दूर कर, आशा की रोशनी देने का प्रतीक माना जाता है। कार्तिक माह में घर के मंदिर, नदी के तट एवं शयन कक्ष में दीप जलाने का महत्व पाया गया है। 
  •  - कार्तिक के पूरे माह में ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करके तुलसी को जल चढ़ाने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। इस माह में तुलसी के पौधे को दान करना भी शुभ माना गया है। 
  • ----माँ लक्ष्मी को गन्ना, अनार व सीताफल चढ़ाएँ। - कार्तिक माह में तुलसी का पूजन और सेवन करने से घर में सदा सुख-शांति बनी रहती है। तुलसी की कृपा से आपके घर से नकारात्मसक शक्ति दूर रहती है।
  •  ----इन दिनों दरिद्रता के नाश के लिए पीपल के पत्ते पर दीपक जलाकर नदी में प्रवाहित करें।
  •  --शाम के समय ‘वसंतबान्धव विभो शीतांशो स्वस्ति न: कुरू’ मंत्र बोलते हुए चन्द्रमा को अर्घ्य देना चाहिए। कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान श्रेष्ठ कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के संबंध में ऋषि अंगिरा ने लिखा है कि इस दिन सबसे पहले हाथ-पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें। 
  •  ----यदि स्नान में कुश और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फलों से सम्पूर्ण पुण्य की प्राप्ति नहीं होती है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की दान देते समय जातक हाथ में जल लेकर ही दान करें। स्नान करने से असीम पुण्य मिलता है गृहस्थ व्यक्ति को तिल व आंवले का चूर्ण लगाकर स्नान करने से असीम पुण्य मिलता है। 
  •  ----विधवा तथा सन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मिट्टी को लगाकर स्नान करना चाहिए। इस दौरान भगवान विष्णु के ऊं अच्युताय नम:, ऊं केशवाय नम:, ऊॅ अनंताय नम: मन्त्रों का जाप करना चाहिए। ---पूर्णिमा मां लक्ष्मी को अत्यन्त प्रिय है। इस दिन मां लक्ष्मी की आराधना करने से जीवन में खुशियों की कमी नहीं रहती है। पूर्णिमा को प्रात: 5 बजे से 10:30 मिनट तक मां लक्ष्मी का पीपल के वृक्ष पर निवास रहता है। इस दिन जो भी जातक मीठे जल में दूध मिलाकर पीपल के पेड़ पर चढ़ाता है उस पर मां लक्ष्मीप्रसन्न होती है। ---कार्तिक पूर्णिमा के गरीबों को चावल दान करने से चन्द्र ग्रह शुभ फल देता है। इस दिन शिवलिंग पर कच्चा दूध, शहद व गंगाजल मिलकार चढ़ाने से भगवान शिव प्रसन्न होते है। 
  •  ---ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की कार्तिक पूर्णिमा को घर के मुख्यद्वार पर आम के पत्तों से बनाया हुआ तोरण अवश्य बांधे। वैवाहिक व्यक्ति पूर्णिमा के दिन भूलकर भी अपनी पत्नी या अन्य किसी से शारीरिक सम्बन्ध न बनाएं, अन्यथा चन्द्रमा के दुष्प्रभाव आपको व्यथित करेंगे। 
  •  ----आज के दिन चन्द्रमा के उदय होने के बाद खीर में मिश्री व गंगा जल मिलाकर मां लक्ष्मी को भोग लगाकर प्रसाद वितरित करें।

इस शारदीय नवरात्रि में पूजाघर/ घर के मंदिर भूलकर भी नहीं करें ये गलतियां वरना हो सकता हैं तनाव/टेंशन

प्रिय पाठकों/मित्रों, भगवान् की पूजा हर घर में की जाती है, लोग अपने घर में भगवान् को एक खास जगह देते है और उसी जगह पर रोज़ाना उनकी पूजा पाठ की जाती है,एक तरह से माना जाये तो ये स्थान हमारे घर में एक मंदिर के रूप में रहता है.मंदिर चाहे छोटा हो या बड़ा लेकिन उसका वास्तु के अनुसार ही होना शुभ माना जाता है. आज हम आपको आपके घर के मंदिर से जुड़ी ऐसी ज़रूरी बातो के बारे में बताने जा रहे है जिनका ध्यान रखना बहुत ही जरूरी होता है. अगर आप इन बातो का ध्यान नहीं रखते है तो इससे भगवान की कृपा घर-परिवार को नहीं मिल पाती है |
इस शारदीय नवरात्रि में पूजाघर/ घर के मंदिर भूलकर भी नहीं करें ये गलतियां वरना हो सकता हैं तनाव/टेंशन-Do-not-even-forget-the-house-in-this-monastery-Navaratri-These-mistakes-may-be-tension       घर के मंदिर में भगवान की मूर्तियां रखकर पूजा अर्चना करने की परंपरा सदियों पुरानी है। लेकिन वास्तु शास्‍त्र के अनुसार कुछ ऐसे देवी-देवताओं की मूर्त‌ियां भी हैं जिन्हें घर के मंद‌िर में नहीं रखना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि इनके घर में होने पर सुख समृद्ध‌ि घर से चली जाती है। वास्तुशास्त्री पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की यदि आपके घर का पूजाघर गलत दिशा में बना हुआ हैं तो पूजा का अभीष्ट फल प्राप्त नहीं होता हैं फिर भी ऐसे पूजाघर में उत्तर अथवा पूर्वोत्तर दिशा में भगवान की मूर्तियाॅ या चित्र आदि रखने चाहिए । पूजाघर की देहरी को कुछ ऊँचा बनाना चाहिए । पूजाघर में प्रातःकाल सूर्य का प्रकाश आने की व्यवस्था बनानी चाहिए । पूजाघर में वायु के प्रवाह को संतुलित बनाने के लिए कोई खिड़की अथवा रोशनदान भी होनी चाहिए । पूजाघर के द्वार पर मांगलिक चि
न्ह, (स्वास्तीक, ऊँ,) आदि स्थापित करने चाहिए ।
      ब्रह्मा, विष्णु, महेश या सूर्य की मूर्तियों का मुख पूर्व या पश्चिम में होना चाहिए । गणपति एवं दुर्गा की मूर्तियों का मुख दक्षिण में होना उत्तम होता हैं । काली माॅ की मूर्ति का मुख दक्षिण में होना शुभ माना गया हैं । हनुमान जी की मूर्ति का मुख दक्षिण पश्चिम में होना शुभ फलदायक हैं । पूजा घर में श्रीयंत्र, गणेश यंत्र या कुबेर यंत्र रखना शुभ हैं । पूजाघर के समीप शौचालय नहीं होना चाहिए । इससे प्रबल वास्तुदोष उत्पन्न होता हैं । यदि पूजाघर के नजदीक शौचालय हो, तो शौचालय का द्वार इस प्रकार बनाना चाहिए कि पूजाकक्ष के द्वार से अथवा पूजाकक्ष में बैठकर वह दिखाई न दे । 
      पूजाघर का दरवाजा लम्बे समय तक बंद नहीं रखना चाहिए । यदि पूजाघर में नियमित रूप से पूजा नहीं की जाए तो वहाॅ के निवासियों को दोषकारक परिणाम प्राप्त होते हैं । पूजाघर में गंदगी एवं आसपास के वातावरण में शौरगुल हो तो ऐसा पूजाकक्ष भी दोषयुक्त होता हैं चाहे वह वास्तुसम्मत ही क्यों न बना हो क्योंकि ऐसे स्थान पर आकाश तत्व एवं वायु तत्व प्रदूषित हो जाते हैं जिसके कारण इस पूजा कक्ष में बैठकर पूजन करने वाले व्यक्तियों की एकाग्रता भंग होती हैं तथा पूजा का शुभ फला प्राप्त नहीं होता । पूजा घर गलत दिशा में बना हुआ होने पर भी यदि वहां का वातावरण स्वच्छ एवं शांतिपूर्ण होगा तो उस स्थान का वास्तुदोष प्रभाव स्वयं ही घट जाएगा ।
       भगवान के दर्शन मात्र से ही कई जन्मों के पापों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। इसी वजह से घर में भी देवी-देवताओं की मूर्तियां रखने की परंपरा है। इस कारण घर में छोटा मंदिर होता है और उस मंदिर में देवी-देवताओं की प्रतिमाएं रखी जाती हैं। कुछ लोग एक ही देवता की कई मूर्तियां भी रखते हैं। हमारे वैदिक शास्त्रों में बताया गया है कि घर के मंदिर में किस देवता की कितनी मूर्तियां रखना श्रेष्ठ है।
 भगवान् श्रीगणेश की मूर्ति---- 
प्रथम पूज्य श्रीगणेश के स्मरण मात्र लेने से ही कार्य सिद्ध हो जाते हैं। घर में इनकी मूर्ति रखना बहुत शुभ माना जाता है। वैसे तो अधिकांश घरों में गणेशजी की कई मूर्तियां होती हैं, लेकिन ध्यान रखें कि गजानंद की मूर्तियों की संख्या 1, 3 या 5 नहीं होना चाहिए। यह अशुभ माना गया है। गणेशजी की मूर्तियों की संख्या विषम नहीं होना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार श्रीगणेश का स्वरूप सम संख्या के समान होता है, इस कारण इनकी मूर्तियों की संख्या विषम नहीं होना चाहिए। विषम संख्या यानी 1, 3, 5 आदि। घर में श्रीगणेश की कम से कम दो मूर्तियां रखना श्रेष्ठ माना गया है।
 शिवलिंग की संख्या और आकार--- 
ऐसा माना जाता है कि शिवलिंग के दर्शन मात्र से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। घर में शिवलिंग रखने के संबंध में कुछ नियम बताए गए हैं। घर के मंदिर में रखे गए शिवलिंग का आकार हमारे अंगूठे से बड़ा नहीं होना चाहिए। ऐसा माना जाता है शिवलिंग बहुत संवेदनशील होता है, अत: घर में ज्यादा बड़ा शिवलिंग नहीं रखना चाहिए। इसके साथ ही घर के मंदिर में एक शिवलिंग ही रखा जाए तो वह ज्यादा बेहतर फल देता है। एक से अधिक शिवलिंग रखने से बचना चाहिए।
 हनुमानजी की मूर्तियां--- 
घर के मंदिर में हनुमानजी की मूर्ति की संख्या एक ही होनी चाहिए, क्योंकि बजरंग बली रुद्र (शिव) के अवतार हैं। घर में शिवलिंग भी एक ही होना चाहिए। मंदिर में बैठे हुए हनुमानजी की प्रतिमा रखना श्रेष्ठ होता है। घर के अन्य भाग में हनुमानजी की मूर्ति नहीं, ऐसी फोटो रखी जा सकती है, जिसमें वे खड़े हुए हों। घर के दरवाजे के पास उड़ते हुए हनुमानजी की फोटो रखी जा सकती है। ध्यान रखें पति-पत्नी को शयनकक्ष में हनुमानजी की मूर्ति या फोटो नहीं लगाना चाहिए। शयनकक्ष में राधा-कृष्ण का फोटो लगाया जा सकता है। 
 मां दुर्गा और अन्य देवियों की मूर्तियों की संख्या---- 
घर के मंदिर मां दुर्गा या अन्य किसी देवी की मूर्तियों की संख्या तीन नहीं होना चाहिए। यह अशुभ माना जाता है। यदि आप चाहें तो तीन से कम या ज्यादा मूर्तियां घर के मंदिर में रख सकते हैं। मूर्तियों के संबंध में श्रेष्ठ बात यही है कि मंदिर में किसी भी देवता की एक से अधिक मूर्तियां न हो। अलग-अलग देवी-देवताओं की एक-एक मूर्तियां रखी जा सकती है। 
आइये पंडित दयानन्द शास्त्री से जानते है घर-परिवार में खुशियां और शांति बनाएं रखने के लिए कुछ टिप्स/टोटके/उपाय---
  1. आपके घर के मंदिर के आसपास बाथरूम का होना अच्छा नहीं माना जाता है,इसके अलावा मंदिर को कभी किचन में भी नहीं बनवाना चाहिए,वास्तु के हिसाब से ये अच्छा नहीं माना जाता है. 
  2.  मंदिर को कभी भी अपने घर की दक्षिण और पश्चिम दिशा में ना बनवाये. ऐसा होने से परिवार के सदस्यों पर बहुत बुरा असर पड़ता है. मंदिर को हमेशा घर की पूर्व या उत्तर दिशा में होना चाहिए,ऐसा करने से घर में हमेशा सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है. 
  3. इस बात का हमेशा ध्यान रखे की आप अपने घर के मंदिर में भगवान की जिन मूर्तियों को रखते है उनमे हमेशा एक इंच का फासला ज़रूर होना चाहिए, इसके अलावा भगवान को कभी भी आमने सामने नहीं रखना चाहिए. ऐसा होने से आपके जीवन में तनाव हो सकता है. 
  4.  वास्तु विज्ञान के मुताबिक भगवान भैरव की मूर्ति घर में नहीं रखनी चाह‌िए। वैसे तो भैरव, भगवान श‌िव का ही एक रूप हैं। लेकिन भैरव, तामस‌िक देवता हैं। तंत्र मंत्र द्वारा इनकी साधना की जाती है। इसल‌िए घर में भैरव की मूर्त‌ि नहीं रखनी चाह‌िए। 
  5. भगवान श‌िव का एक और रूप है- नटराज। वास्तु शास्त्र के अनुसार नटराज रूप वाली भगवान श‌िव की प्रत‌िमा भी घर में नहीं होनी चाह‌िए। इसका कारण यह है क‌ि नटराज रूप में श‌िव, तांडव करते हैं इसल‌िए इन्हें घर में न लाएं। 
  6. ग्रह शांति के लिए शनि की पूजा अर्चना तो की जाती है लेकिन ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक शनि की मूर्ति घर नहीं लानी चाहिए। शनि की ही तरह, ज्योत‌िषशास्‍त्र में राहु-केतु की भी पूजा की सलाह तो दी जाती है, लेक‌िन इनकी मूर्त‌ि घर लाने से मना किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंक‌ि राहु-केतु, दोनों छाया ग्रह होने के साथ ही पाप ग्रह भी है। 
  7. वास्तु शास्त्र के मुताबिक घर के मंदिर में भगवान की सिर्फ सौम्य रूप वाली मूर्त‌ियां ही होनी चाह‌िए। ऐसे में मां दुर्गा के कालरात्र‌ि स्वरूप वाली मूर्त‌ि भी घर में नहीं रखनी चाहिए। 

जानिए कुछ अतिरिक्त विशेष सावधानियां--- 
  1. किसी भी प्रकार के पूजन में कुल देवता, कुल देवी, घर के वास्तु देवता, ग्राम देवता आदि का ध्यान करना भी आवश्यक है। इन सभी का पूजन भी करना चाहिए। 
  2. पूजन में हम जिस आसन पर बैठते हैं, उसे पैरों से इधर-उधर खिसकाना नहीं चाहिए। आसन को हाथों से ही खिसकाना चाहिए।
  3. देवी-देवताओं को हार-फूल, पत्तियां आदि अर्पित करने से पहले एक बार साफ पानी से अवश्य धो लेना चाहिए। भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए पीले रंग का रेशमी कपड़ा चढ़ाना चाहिए। माता दुर्गा, सूर्यदेव व श्रीगणेश को प्रसन्न करने के लिए लाल रंग का, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए सफेद वस्त्र अर्पित करना चाहिए। 
  4. पूजन कर्म में इस बात का विशेष ध्यान रखें कि पूजा के बीच में दीपक बुझना नहीं चाहिए। ऐसा होने पर पूजा का पूर्ण फल प्राप्त नहीं हो पाता है। 
  5. यदि आप प्रतिदिन घी का एक दीपक भी घर में जलाएंगे तो घर के कई वास्तु दोष भी दूर हो जाएंगे। 
  6. सूर्य, गणेश, दुर्गा, शिव और विष्णु, ये पंचदेव कहलाते हैं, इनकी पूजा सभी कार्यों में अनिवार्य रूप से की जानी चाहिए। प्रतिदिन पूजन करते समय इन पंचदेव का ध्यान करना चाहिए। इससे लक्ष्मी कृपा और समृद्धि प्राप्त होती है 
  7. तुलसी के पत्तों को 11 दिनों तक बासी नहीं माना जाता है। इसकी पत्तियों पर हर रोज जल छिड़कर पुन: भगवान को अर्पित किया जा सकता है। 
  8. दीपक हमेशा भगवान की प्रतिमा के ठीक सामने लगाना चाहिए। कभी-कभी भगवान की प्रतिमा के सामने दीपक न लगाकर इधर-उधर लगा दिया जाता है, जबकि यह सही नहीं है। 
  9. घी के दीपक के लिए सफेद रुई की बत्ती उपयोग किया जाना चाहिए। जबकि तेल के दीपक के लिए लाल धागे की बत्ती श्रेष्ठ बताई गई है। 
  10. पूजन में कभी भी खंडित दीपक नहीं जलाना चाहिए। धार्मिक कार्यों में खंडित सामग्री शुभ नहीं मानी जाती है।
  11. शिवजी को बिल्व पत्र अवश्य चढ़ाएं और किसी भी पूजा में मनोकामना की सफलता के लिए अपनी इच्छा के अनुसार भगवान को दक्षिणा अवश्य चढ़ानी चाहिए, दान करना चाहिए। दक्षिणा अर्पित करते समय अपने दोषों को छोड़ने का संकल्प लेना चाहिए। दोषों को जल्दी से जल्दी छोड़ने पर मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी। --
  12. भगवान सूर्य की 7, श्रीगणेश की 3, विष्णुजी की 4 और शिवजी की 1/2 परिक्रमा करनी चाहिए। 
  13. घर में या मंदिर में जब भी कोई विशेष पूजा करें तो अपने इष्टदेव के साथ ही स्वस्तिक, कलश, नवग्रह देवता, पंच लोकपाल, षोडश मातृका, सप्त मातृका का पूजन भी अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए। इन सभी की पूरी जानकारी किसी ब्राह्मण (पंडित) से प्राप्त की जा सकती है। विशेष पूजन पंडित की मदद से ही करवाने चाहिए, ताकि पूजा विधिवत हो सके।
  14. घर में पूजन स्थल के ऊपर कोई कबाड़ या भारी चीज न रखें। 
  15. भगवान शिव को हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए और न ही शंख से जल चढ़ाना चाहिए। 
  16. पूजन स्थल पर पवित्रता का ध्यान रखें। चप्पल पहनकर कोई मंदिर तक नहीं जाना चाहिए। चमड़े का बेल्ट या पर्स अपने पास रखकर पूजा न करें। पूजन स्थल पर कचरा इत्यादि न जमा हो पाए। 
  17. किसी भी भगवान के पूजन में उनका आवाहन (आमंत्रित करना) करना, ध्यान करना, आसन देना, स्नान करवाना, धूप-दीप जलाना, अक्षत (चावल), कुमकुम, चंदन, पुष्प (फूल), प्रसाद आदि अनिवार्य रूप से होना चाहिए। 
  18. सभी प्रकार की पूजा में चावल विशेष रूप से चढ़ाए जाते हैं। पूजन के लिए ऐसे चावल का उपयोग करना चाहिए जो अखंडित (पूरे चावल) हो यानी टूटे हुए ना हो। चावल चढ़ाने से पहले इन्हें हल्दी से पीला करना बहुत शुभ माना गया है। इसके लिए थोड़े से पानी में हल्दी घोल लें और उस घोल में चावल को डूबोकर पीला किया जा सकता है। 
  19.  पूजन में पान का पत्ता भी रखना चाहिए। ध्यान रखें पान के पत्ते के साथ इलाइची, लौंग, गुलकंद आदि भी चढ़ाना चाहिए। पूरा बना हुआ पान चढ़ाएंगे तो श्रेष्ठ रहेगा। 

घर के मंदिर का बल्ब देता हें नुकसान/हानि—
 आजकल बहुत से लोग घरों या दुकानों में छोटा-सा मंदिर बनाकर उसमें गणेश जी या लक्ष्मी जी की प्रतिमा स्थापित कर देते हैं, वहां घी का दीपक जलाने की बजाय बिजली का बल्व लगा देते हैं। यदि आपने भी गणेश जी के स्थान में बिजली का लाल बल्ब जला रखा है तो इसे उतार दें। यह शुभदायक नहीं है, इससे आपके खाते में हानि के लाल अंक ही आएंगे। अतः घर के मंदिर में कभी भी बिजली के बल्व का इस्तेमाल न करें। कहते मंदिर जाने से मन को शांति मिलती है। 
    मंदिर वो स्थान है जहां से व्यक्ति को आत्मिक शांति के साथ ही सुख-समृद्धि भी मिलती है। लेकिन वास्तु के अनुसार घर के आसपास मंदिर का होना शुभ नहीं माना जाता है। ऐसे मंदिर आपका घर बिगाड़ सकते हैं। आपको ऐसे मंदिरों में नहीं जाना चाहिए जो आपके घर के पास है। अगर आप ऐसे मंदिरों में पूजा करते हैं तो उन मंदिरों के प्रभाव से आपका घर बिगड़ सकता है। आपकी पूजा पाठ का अशुभ फल आपके घर पडऩे लगता है।

जानिए कैसे करें रूद्राक्ष द्वारा अपने रोग/बीमारी दूर करने में उपयोग ( रुद्राक्ष द्वारा विभिन्न रोगों की चिकित्सा)

रूद्राक्ष (रूद्र मतलब शिव, अक्ष मतलब आंसु इसलिए रूद्र अधिक अक्ष मतलब शिव के आंसु) विज्ञान में उसे म्संमवबंतचने ळंदपजतें त्वगइ के नाम से जाना जाता हैं, जो एक तरह का (फल) बीज हैं । जो कि एशिया खंड के कुछ भागों में जैसे की इंडोनेशिया, जावा, मलेशिया, भारत, नेपाल, श्रीलंका और अंदमान-निकोबार में पाये जाते हैं । कई वैज्ञानिको ने अपने लंबे प्रयोगात्मक अभ्यास के बाद कबूल किया हैं कि इस चमत्कारी बीज के कई फायदे हैं । रूद्राक्ष में इलेक्ट्रोमॅग्रेटिव, अध्यात्मिक और कई वैद्यकीय खूबीयां हैं जो इसके पहनने वाले को जीवन के कई कार्यक्षेत्र (जैसे की धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) में मदद रूप होता हैं । कई पुराण, शास्त्रों और आयुर्वेदिय शास्त्रों में रूद्राक्ष के फायदे और महत्ता का तलस्पर्शीय वर्णन किया गया हैं । आज कई हजार सालो से राजा, साधु-संत और ऋषिमुनि रूद्राक्ष की पूजा करते आ रहे हैं और उसे पहनते आये हैं । 
जानिए कैसे करें रूद्राक्ष द्वारा अपने रोग/बीमारी दूर करने में उपयोग ( रुद्राक्ष द्वारा विभिन्न रोगों की चिकित्सा)-Learn-how-to-use-Rudraksh-to-remove-his-disease-Rudraksh-treatment-of-various-diseases--       कहते हैं रूद्राक्ष पहनने वाले को अध्यात्मिक रूप में कई फायदे होते हैं, उससे संपत्ति और ख्याति भी बढ़ती हें ओर कई भौतिक सुख भी प्राप्त होते हैं । रूद्राक्ष या रूद्राक्षमाला पहनने से पहले जरूरी हैं कि किसी रूद्राक्ष थेयायिस्ट, ज्योतिषि, वैदिक अभ्यासु, आयुर्वेदिक डॉक्टर या फिर किसी ऐसे व्यक्ति जिसने रूद्राक्ष धारण किया हो । उनसे उनके अनुभवों को जान लेना जरूरी हैं ताकि रूद्राक्ष से होने वाले फायदों ाक रूद्राक्ष धारण करने वाला व्यक्ति पूरी तरह लाभ उठा सके । रूद्राक्ष के दर्शन से लक्ष पुण्य, स्पर्श से कोटि-प्रमाण पुण्य, धारण करने से दशकोटि-प्रमाण पुण्य एवं इससे जप करने से लक्ष कोटि सहस्त्र तथा लक्ष कोटि शत-प्रमाण पुण्य की प्राप्ति होती हैं। श्री मद्देवीभागवत के अनुसार जिस प्रकार पुरूषों में विष्णु, ग्रहों में सूर्य, नदियों में गंगा, मुनियों में कश्यप, अश्व समूहों में उच्चैः श्रवा, देवों में शिव देवियों में गौरी (पार्वती) सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही यह रूद्राक्ष सभी में श्रेष्ठ हैं।  
रूद्राक्ष उत्पत्ति की कथा :- 
 स्कन्ध पुराण के अनुसार प्राचीन समय में पाताल लोक का राजा मय बड़ा ही बलशाली, शुरवीर, महापराक्रमी और अजय राजा था । एक बार उसके मन में लौभ आया और पाताल से निकलकर अन्य लोको पर विजय प्राप्त की जाए एैसा मन में विचार किया । विचार के अनुसार पाताल लोक के दानवों ने अन्य लोकों के ऊपर आक्रमण कर दिया और अपने बल के मद में चुर मय ने हिमालय पर्वत के तीनों श्रृंगों पर तीन पूल बनाए । जिनमें से एक सोने का, एक चॉदी का और एक लोहे का था । इस प्रकार सभी देवताओं के स्थान पर पाताल लोक के लोगों का वहां राज्य हो गया । 
       सभी देवतागण इधन-उधर गुफा आदि में छुपकर अपना जीवन व्यतित करने लगे । अन्त में सभी देवतागण ब्रह्माजी के पास गये और उनसे प्रार्थना की कि पाताल लोक के महापराक्रमी त्रिपुरासुरों से हमारी रक्षा करें । तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि त्रिपुरासुर इस समय महापराक्रमी हैं । समय और भाग्य उसका साथ दे रहा हैं । अतः हम सभी को त्रिलोकीनाथ भगवान विष्णु की शरण में चलना चाहिए । हमारा मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होगा । इस प्रकार ब्रह्माजी सहित समस्त देवगण विष्णु लोक पहुॅचकर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगें । देवगणों ने अपनी करूण कथा भगवान विष्णु को सुनाई और अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की । भगवान विष्णु ने भी ब्रह्माजी की तरह भगवान शिव की शरण में जाने को कहा । तत्प्श्चात सभी देवगण भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत पहुॅचे वहां उन्होने प्रभु से शरण मांगी और अपने जीवन की रक्षा हेतु प्रार्थना की । 
     तब भगवान विष्णु और ब्रह्मा आदि सहित सभी देवतागण व स्वयं भगवान शिव पृथ्वी मंडल पर रथ को लेकर, तथा अपना धनुष बाण लेकर और स्वयं भगवान विष्णु दिव्य बाण बनकर भगवान शिव के सामने उपस्थित हुए । इस प्रकार भगवान शिव ने सागर स्वरूप तूणिर को बांध युद्ध के लिए रवाना हुए । त्रिपुरासुरों के नगर में पहुॅचकर भगवान शिव ने शुलमणी भगवान नारायण स्वरूप धारण कर अमोघ बाण को धनुष में चढ़ाकर निशाना साधते हुए त्रिपुरासुर पर प्रहार किया जिससे त्रिपुरासुरों के तीनों त्रिपुर के जलते ही हाहाकार मच गई । त्रिपुर के दाह के समय भगवान शिव ने अपने रोद्र शरीर को धारण कर लिया और अपनी युद्ध की थकान मिटाने हेतु सुन्दर शिखर पर विश्राम करने हेतु पहुॅचे । विश्राम के बाद भगवान शिव जोर-जोर से हंसने लगे । भगवान रूद्र के नेत्रों से चार ऑसु टपक पड़े। उन्हीं चार बूंद अश्रुओं के उस शेल शिखर पर गिर जाने से चार अंकुर पैदा हुए । समयानुसार अंकुर बड़े होने से कोई पत्र, पुष्प व फल आदि से हरे-भरे हो गये और रूद्र के अश्रुकणों से उत्पन्न ये वृक्ष रूद्राक्ष नाम से विख्यात हुए । 
 जानिए रूद्राक्ष और रूद्राक्ष माला पहनने के फायदे--- 
 1 रूद्राक्ष अथवा रूद्राक्षमाला मनकी चंचलता दूर करता हैं, शांति देता हैं, बेचैनी दूर करता हैं, आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान बढ़ाता हैं । 
 2 रूद्राक्ष में कई प्रकार के विटामिन हेते हैं जैसे कि विटामिन सी, जो रोगो से लड़ने वाली हमारे शरीर की प्रतिकारक शक्ति को बढ़ाता हैं । रूद्राक्ष में इलेक्ट्रोमॅग्रेटिक तरंगे होती हैं, जो हमारे रूधिराभिसरण और रक्तचाप को काबू में रखता हैं । 
 3 रूद्राक्ष-रूद्राक्षमाला की पूजा करने वाले और धारण करने वाले को रूद्राक्ष कालाजादू, मारण तंत्र, और बुरी आत्माओं से सुरक्षा प्रदान करता हैं । 
 4 रूद्राक्ष-रूद्राक्षमाला पहननेवाले को रूद्राक्ष अकस्मात और अकुदरती मौत से बचाता हैं । 
 5 रूद्राक्ष-रूद्राक्षमाला हमारे अंदर की विषयवासना, लालच, क्रोध और अहंकार को दूर करता हैं, और हृदय को शुद्ध करता हैं । 
 6 मंत्र सिद्धि में रूद्राक्षमाला इन्सान की अंतरज्ञान शक्ति तथा अति इंद्रिय शक्ति को बढ़ाता हैं। सही नियमों का पालन करके किसी खास हेतु से पहना गया रूद्राक्ष इच्छित वस्तु या लक्ष्य पाने में काफी मदद करता हैं । 
===================================================================== आइये जाने विभिन्न रुद्राक्ष और उनके औषधीय गुण--- 
 एकमुखी रूद्राक्ष :- एकमुखी रूद्राक्ष साक्षात् शिव-स्वरूप हैं, इसके धारण करने से बड़े से बड़े पापों का नाश होता हैं, मनुष्य चिंतामुक्त और निर्भय हो जाता हैं, उसे किसी भी प्रकार की अन्य शक्ति और शत्रु से कोई कष्ट भय नहीं होता जो एकमुखी रूद्राक्ष को धारण और पूजन करता हैं, उसके यहॉ लक्ष्मी साक्षात् निवास करती हैं, स्थिर हो जाती हैं । रूद्राक्षों में एकमुखी रूद्राक्ष सर्वश्रेष्ठ, शिव स्वरूप सर्वकामना सिद्धि-फलदायक और मोक्षदाता हैं। एकमुखी रूद्राक्ष से संसार के सभी सुख सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं । अपने प्रभाव से यह रूद्राक्ष कंगाल को राजा बना सकता हैं ।
       सच्चा एकमुखी रूद्राक्ष किसी भी असम्भव कार्य को सम्भव कर सकता हैं किन्तु यह बात आमतौर पर बाजार में मिलने वाले एक मुखी काजु दाना (भद्राक्ष) पर लागु नहीं होती हैं । सूर्य दक्षिण-नेत्र, हृदय, मस्तिष्क, अस्थि इत्यादि का कारक हैं। यह ग्रह भगन्दर, स्नायु रोग, अतिसार, अग्निमंदता इत्यादि रोगों का भी कारक बनता हैं, जब यह प्रतिकूल बन जाता हैं, तब यह विटामिन ए और विटामिन डी को भी संचालित करता है, जिसकी कमी से निशान्धता (रात में न दिखाई देना), हड्डीयों की कमजोरी जैसे रोग उत्पन्न हाते हैं । इन सब के निवारण के लिए एकमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए क्योकिं सूर्यजनित दोषों के निवारण हेतु ज्योतिषी माणिक्य रत्न धारण करने का परामर्श देते हैं । सूर्य प्रतिकूल-स्थानीय होकर विभिन्न रोगों को जन्म देते हैं । नेत्र सम्बन्धी रोग, सिरदर्द, हृदयरोग, हड्डी के रोग, त्वचा रोग, उदर सम्बन्धी रोग, तेज बुखार, जैसे सभी रोगो के निवारण हेतु रूद्राक्ष माला के मध्य में एकमुखी रूद्राक्ष को पिरोकर धारण करना चाहिए। 
 दोमुखी रूद्राक्ष :-  दोमुखी रूद्राक्ष हर गौरी (अर्धनारीश्वर) स्वरूप हैं, इसे शिव-शिवा-रूप भी कहते हैं, दोमुखी रूद्राक्ष साक्षात् अग्नि स्वरूप हैं, जिसके शरीर पर ये प्रतिष्ठित (धारण) होता हैं, उसके जन्म जन्मांतर के पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार अग्नि ईधन को जला डालती हैं । इस रूद्राक्ष का संचालन ग्रह चन्द्रमा (सोम) हैं । यह रूद्राक्ष हर प्रकार के रिश्तों में एकता बढ़ाता हैं, वशीकरण मानसिक शांति व ध्यान में एकग्रता बढ़ाता हैं । इच्छाशक्ति पर काबू, कुण्डली को जागृत करने में सहायता करता हैं । 
      स्त्री रोग जैसे गर्भाशय संबंधीत रोग शरीर के सभी प्रवाही और रक्त संबंधी बीमारियां, अनिद्रा, दिमाग, बांयी आँख की खराबी, खून की कमी, जलसम्बन्धी रोग, गुर्दा कष्ट, मासिक धर्म रोग, स्मृति-भ्रंश इत्यादि रोग होते हैं। इसके दुष्प्रभाव से दरिद्रता तथा मस्तिष्क विकार भी होते हैं । गुणों के हिसाब से यह मोती से कई गुना ज्यादा प्रभावी हैं। यह ग्रह हृदय, फेफडा, मस्तिष्क, वामनेत्र, गुर्दा, भोजन-नली, शरीरस्थ इत्यादि का कारक हैं। चन्द्रमा की प्रतिकूल स्थिति तथा दुष्प्रभाव के कारण हृदय तथा फेफड़ो की बीमारी होती हैं। 
तीनमुखी रूद्राक्ष : - तीनमुखी रूद्राक्ष ब्रह्मस्वरूप हैं। इसमें ब्रह्मा , विष्णु , महेश तीनों शक्तियों का समावेश है। इसका प्रधान ग्रह मंगल हैं। मंगल को ज्योतिषशास्त्र में सेनापति का दर्जा दिया गया हैं। यह अग्निरूप हैं। इसको धारण करने से आत्मविश्वास, निर्भयता, द्वेश, उच्चज्ञान, वास्तुदोष आदि में फायदा होता हैं । मंगल यदि किसी भी दुष्प्रभाव में होता हैं तो उसे रक्त रोग, हैजा, प्लेग, चेचक, रक्तचाप, शक्ति क्षीणता, नारी अंगरोग, अस्थिभ्रंश, बवासीर, मासिक धर्म रोग, अल्सर, अतिसार, चोट लगना और घाव आदि रोग होते है। मंगल ग्रह की प्रतिकूलता से उत्पन्न इन सभी रोगों के निदान और निवारण के लिए तीनमुखी रूद्राक्ष आवश्यक रूप से धारण करना चाहिए। वृश्चिक और मेष राशि वालो के लिए तीनमुखी रूद्राक्ष अत्यन्त ही भाग्योदयकारी हैं।
 चारमुखी रूद्राक्ष : - चारमुखी रूद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्मा का स्वरूप माना गया हैं। यह चार वेदों का रूप भी माना गया हैं। चारमुखी रूद्राक्ष के धारणकर्ता की आँखों में तेजस्विता , वाणी में मधुरता तथा शरीर में स्वास्थ्य एवं अरोग्यजनित कान्ति उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे व्यक्ति जहाँ भी होते हैं, उनके चतुर्दिक सम्मोहन का प्रभाव मण्डल निर्मित हो जाता है। यह रूद्राक्ष मन की एकाग्रता को बढाता हैं जो लेखक, कलाकार, विज्ञानी, विद्यार्थी और व्यापारियों को लाभकारी हैं । इसके प्रभाव से चपलता, चातुर्य और ग्रहण शक्ति में लाभ होता हैं । इस रूद्राक्ष पर बुध ग्रह का नियंत्रण होता हैं। 
     ज्योतिष शास्त्र में बुध ग्रह को युवराज कहा जाता है। यह नपुंसक तथा सौम्य ग्रह हैं। बुध ग्रह विद्या , गणित , ज्ञान, गाल ब्लाडर , नाड़ी संस्थान आदि का कारक हैं। इसकी प्रतिकुलता से अपस्मार , नाक, कान तथा गले के रोग, नपुंसकता, हकलाना, सफेद दाग, मानसिक रोग , मन की अस्थिरता, त्वचारोग, कोढ़, पक्षाघात पीतज्वर , नासिका रोग , दमा आदि रोग होते हैं। इन सभी के निदान के लिए चारमुखी रूद्राक्ष धारण करना लाभप्रद हैं। व्यापारियों और मिथुन तथा कन्या राशि वालो को चारमुखी रूद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए। पन्ने की जगह चारमुखी रूद्राक्ष धारण करने से पन्ने से कई गुना लाभ प्राप्त हो सकता हैं 
 पाँचमुखी रूद्राक्ष : - पाँचमुखी रूद्राक्ष स्वयं रूद्र स्वरूप हैं इसे कालाग्नि के नाम से भी जाना जाता है। यह सर्वाधिक शुभ और पुण्यदायी माना जाता हैं। इससे यशोवृद्धि और वैभव सम्पन्नता आती हैं। इसका संचालन ग्रह बृहस्पति है। इसके उपयोग से मानसिक शांति, बुरी आदतों से छुटकारा, मंत्र सिद्धी, पवित्र विचार, व अधिक कामेच्छा पर काबू पाया जा सकता हैं । यह ग्रह धन , वैभव , ज्ञान , गौरव , मज्जा , यकृत , चरण , नितंब का कारक है। 
     बृहस्पति बुरे प्रभाव में हो तो व्यक्ति को अनेक तरह के कष्ट होते है। बृहस्पति स्त्री के लिए पति तथा पुरूष के लिए पत्नि का कारक हैं। अतः इसकी प्रतिकुलता से निर्धनता और दाम्पत्य सुख में विध्न उत्पन्न होता है तथा चर्बी की बिमारी , गुर्दा , जाँघ , शुगर और कान सम्बन्धी बीमारिया पैदा होती हैं। मोटापा, उदर गांठ, अत्यधिक शराब सेवन, एनिमिया, पिलीया, चक्कर आना, व मांस पेशियों के हठीले दर्द आदि के निदान के लिए पंचमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। धनु और मीन राशि वाले तथा व्यापारियों को पंचमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। पुखराज से यह कहीं अधिक गुणकारी और सस्ता हैं।
 छः मुखी रूद्राक्ष : - यह रूद्राक्ष शिव पुत्र गणेश और कार्तिकेय स्वरूप है। इसके धारण से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती हैं। इसमें गणेश और कार्तिकेय स्वरूप होने के कारण इसके धारणकर्ता के लिए गौरी विशेष रूप से वरदायिनी और माता की भाँती सदैव सुलभ होती है। इस रूद्राक्ष का नियत्रंक और संचालक ग्रह शुक्र हैं जो भोग विलास और सुख सुविधा का प्रतिनिधि हैं।
      इसके प्रयोग द्वारा प्रेम, कामसुख, संगीत, कविता, सृजनात्मक और कलात्मक कुशलता, समझदारी, ज्ञान और वाक्य चातुर्य में लाभ होता हैं । यह ग्रह गुप्तेन्द्रिय, पूरूषार्थ, काम वासना , उत्तम भोग्य वस्तु , प्रेम संगीत आदि का कारक हैं। इस ग्रह के दुष्प्रभाव से नेत्र, यौन, मुख, मूत्र, ग्रीवा रोग और जलशोध आदि रोग होते हैं । कोढ़, नपुंसकता और मंद कामेच्छा, पथरी और किडनी सम्बन्धि रोग, मुत्र रोग, शुक्राणु की कमी व गर्भावस्था के रोग आदि में छः मुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए। वृष और तुला राशि वाले के लिए विशेष लाभकारी है।
 सातमुखी रूद्राक्ष : - सातमुखी रूद्राक्ष के देवता सात माताएँ और हनुमानजी हैं। पद्मपुराण के अनुसार सातमुखी रूद्राक्ष के सातो मुख में सात महाबलशाली नाग निवास करते हैं। सात मुखी रूद्राक्ष सप्त ऋषियों का स्वरूप हैं। यह रूद्राक्ष सम्पत्ति , कीर्ति और विजय श्री प्रदान करने वाला होता हैं। सात मुखी रूद्राक्ष साक्षात् अनंग स्वरूप है। अनंग को कामदेव के नाम से भी जाना जाता है। इस रूद्राक्ष के धारण से शरीर पर किसी भी प्रकार के विष का असर नहीं होता हैं। जन्म कुण्डली में यदि पूर्ण या आंशिक कालसर्प योग विद्यमान हो तो सातमुखी रूद्राक्ष धारण करने से पूर्ण अनुकूलता प्राप्त होती हैं। इसे धारण करने से विपुल वैभव और उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती हैं।इसे धारण करने से मनुष्य स्त्रियों के आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। इसके प्रयोग से तंदुरूस्ती, सौभाग्य और सम्पत्ति, रूके हुए कार्य, निराशापन को दूर किया जाता हैं।
       वशीकरण, आत्मविश्वास में वृद्धि, कामसुख व स्थिर विकास के लिए सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए । इस रूद्राक्ष का संचालक तथा नियंत्रक ग्रह शनि हैं यह रोग तथा मृत्यु का कारक हैं। यह ग्रह ठंडक, श्रम, नपुसंकता, पैरो के बीच तथा नीचे वाले भाग, गतिरोध, वायु, विष और अभाव का नियामक हैं। यह लोहा पेट्रोल, चमड़ा आदि का प्रतिनिधित्व करने वाला ग्रह हैं। शनि के प्रभाव से दुर्बलता, उदर पीड़ा, पक्षाघात, मानसिक चितां, अस्थि रोग, क्षय, केंसर, मानसिक रोग, जोड़ो का दर्द, अस्थमा, बहरापन, थकान, आदि रोग हो सकते है। शनि ग्रह भाग्य का कारक भी हैं। कुपित होने पर यह हताशा , कार्य विलम्बन आदि उत्पन्न करता हैं। जन्म कुण्डली में यदि नवें घर तथा नवें घर के स्वामी से किसी भी तरह संबद्ध हो जाता हैं तो ऐसे व्यक्ति का भाग्योदय कठिनाई से व देरी से होता हैं। शनि और शनि की ढैया और साड़ेसाती से पीड़ित लोगों को शनि ग्रह को शान्त करने के लिए सातमुखी रूद्राक्ष धारण करना लाभदायी हैं। 
आठमुखी रूद्राक्ष : - आठमुखी रूद्राक्ष में कार्तिकेय , गणेश ,अष्टमातृगण ,अष्टवसुकगण और गंगा का अधिवास माना गया है। इसके प्रयोग से शुत्रओं, विपत्तियों पर विजय प्राप्त होती हैं । दीर्घायु, ज्ञान, रिद्धी-सिद्धी के लिए व मन की एकाग्रता बढ़ाने हेतु भी यह रूद्राक्ष धारण किया जाता हैं । यह रूद्राक्ष मिथ्या भाषण से उत्पन्न पापों को नष्ट करता है। यह सम्पूर्ण विध्नों को नष्ट करता हैं। आठमुखी रूद्राक्ष का नियंत्रक और संचालक ग्रह राहू है। जो छाया ग्रह हैं। इसमें शनि ग्रह की भांति शनि ग्रह से भी बढ़कर प्रकाशहीनता का दोष हैं। यह शनि की तरह लम्बा ,पीड़ादायक ,अभाव ,योजनाओं में विलम्ब करने वाला एवं रोगकारक है। राहू ग्रह घटनाओं को अकस्मात भी घटित कर देता हैं। चर्मरोग , फेफड़े की बीमारी , पैरों का कष्ट, गुप्तरोग, मानसिक अशांति, सर्पदंश एवं तांत्रिक विद्या से होने वाले व मोतियाबिन्द आदि रोगों का कारक राहू ग्रह हैं। आठमुखी रूद्राक्ष धारण करने से उक्त सभी रोगों एवं राहू की पीड़ाओं से मुक्ति मिलती हैं। 
 नौमुखी रूद्राक्ष : - नौमुखी रूद्राक्ष भैरव स्वरूप हैं। इसमें नौ शक्तियों का निवास हैं इसके धारण करने से सभी नौ शक्तियां प्रसन्न होती हैं। इसके धारण करने से यमराज का भय नहीं रहता हैं। इसके उपयोग से सफलता, सम्मान, सम्पत्ति, सुरक्षा, चतुराई, निर्भयता, शक्ति, कार्यनिपुणता, वास्तुदोष में लाभ लिया जा सकता हैं । नौमुखी रूद्राक्ष का नियंत्रक और संचालक ग्रह केतु हैं जो राहु की तरह ही छाया ग्रह हैं। जिस प्रकार राहु शनि के सदृश हैं , उसी प्रकार केतु मंगल के सदृश हैं। मंगल की तरह केतू भी अपने सहचर्य और दृष्टि के प्रभाव में आने वाले पदार्थो को हानि पहुँचाता हैं। केतू के कुपित होने पर फेफड़े का कष्ट , ज्वर , नेत्र पीड़ा, बहरापन, अनिद्रा, संतानप्राप्ति, उदर कष्ट, शरीर में दर्द दुर्घटना एवं अज्ञात कारणों से उत्पन्न रोग परेशान करते हैं। केतू को मोक्ष का कारक भी माना गया हैं। केतू ग्रह की शांति के लिए लहसुनिया रत्न का प्रयोग किया जाता हैं किन्तू नौमुखी रूद्राक्ष लहसुनियां रत्न से कई गुना ज्यादा प्रभावी हैं।
दसमुखी रूद्राक्ष : - दशमुखी रूद्राक्ष पर यमदेव , भगवान विष्णु , महासेन दस दिक्पाल और दशमहाविद्याआओं का निवास होता हैं। इसका इष्टदेव विष्णु हैं। यह सभी ग्रहों को शांत करता हैं । इसके उपयोग से पारिवारिक शांति, सभी प्रकार की सफलता, दिव्यता एवं एकता प्राप्त होती हैं । इसके धारण से सभी प्रतिकूल ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। इसके धारण से सभी नवग्रह शांत और प्रसन्न होते हैं। इस रूद्राक्ष का प्रभाव ग्रहातंरों तक जाता हैं और ग्रहातंरों से आता हैं। यह समस्त सुखों को देने वाला शक्तिशाली और चमत्कारी रूद्राक्ष हैं। इसके उपयेग से कफ, फैफड़े सम्बन्धि रोग, चिंता, अशक्ति, हृदय रोग आदि में लाभ होता हैं। 
 ग्यारहमुखी रूद्राक्ष : - ग्यारहमुखी रूद्राक्ष एकादश रूद्र स्वरूप हैं। यह अत्यन्त ही सौभाग्यदायक रूद्राक्ष हैं। एक सौ सहस्त्र गायों के सम्यक दान से जो फल प्राप्त होता हैं वह फल ग्यारहमुखी रूद्राक्ष के धारण करने से तत्काल प्राप्त होता है। इस रूद्राक्ष पर इन्द्र का स्वामित्व हैं इन्द्र की प्रसन्नता से ऐश्वर्य और यश की प्राप्ति होती हैं। इसके धारण करने से समस्त इन्द्रिया और मन नियंत्रित होता हैं। इसके प्रयोग से कुण्डली जागरण, योग सम्बंधी एकाग्रता, वैद्यकिय कार्य, निर्भयता, निर्णय क्षमता एवं सभी प्रकार से अकस्मात सुरक्षा में लाभ होता हैं । यह रूद्राक्ष योग साधना में प्रवृत व्यक्तियों के लिए बहुत अनुकूल हैं। यह शरीर , स्वास्थ्य , यम नियम , आसन , षटकर्म या अन्य यौगिक क्रियाओं में आने वाली बाधाओं को नष्ट करता हैं। स्वास्थ्य को सुद्रण बनाने वाले साधकों के लिए यह भगवान शिव का अनमोल उपहार हैं। इसके प्रयोग से स्त्रीरोग, स्नायुरोग, पुराने हठीले रोगों से छुटकारा, शुक्राणु की कमी व संतानप्राप्ति में लाभ होता हैं ।  
बारहमुखी रूद्राक्ष : - बारहमुखी रूद्राक्ष आदित्य अर्थात सूर्य स्वरूप हैं। सभी शास्त्र और पुराणों में इस रूद्राक्ष पर सूर्य की प्रतिष्ठा मानी गई हैं। इस रूद्राक्ष को धारण करने वाला निरोगी और अर्थलाभ करके सुख भोगता हुआ जीवन व्यतीत करता हैं दरिद्रता कभी उसे छू भी नहीं पाती। यह रूद्राक्ष सभी प्रकार की दुर्घटनाओं से बचाकर शक्ति प्रदान करता हैं। जो मनुष्य सर्वाधिकार सम्पन्न बनकर सम्राट की तरह शासन करना चाहता हो उसे यह रूद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए। क्योंकि सूर्य स्वयं बारहमुखी रूद्राक्ष पर प्रतिष्ठित होकर धारणकर्ता को सूर्यवत् तेजस्विता , प्रखरता और सम्राट स्वरूपता प्रदान करता हैं। 
      नेतृत्व के गुण, बड़े सम्मान, ताकत, आत्मसम्मान, आत्म विश्वास, प्रेरणा, श्रद्धा, स्वास्थ्य, एवं ताकत आदि इसके प्रयोग से प्राप्त होते हैं। विश्व के अंधकार को दूर करने वाला सूर्य इस रूद्राक्ष के माध्यम से धारणकर्ता के मन के भीतर के दुःख , निराशा , कुंठा , पीड़ा और दुर्भाग्य के अंधकार को दूर कर देता है। सूर्य तेजोपुंज हैं , अतः बारहमुखी रूद्राक्ष रूद्राक्ष भी धारणकर्ता को तेजस्वी और यशस्वी बना देता हैं। गुणों में यह माणिक्य से अधिक प्रभावी तथा मूल्य में अधिक सस्ता हैं। इसके प्रयोग द्वारा सरदर्द , गंजापन, बुखार, ऑखों के रोग, हृदय रोग, दर्द और बुखार, मुत्राशय एवं पित्ताशय की जलन जैसे रोगों में लाभ होता हैं। 
 तेरहमुखी रूद्राक्ष - तेरहमुखी रूद्राक्ष साक्षात् कामदेव स्वरूप हैं। यह सभी कामनाओं और सिद्धियों को देने वाला हैं। इसे धारण करने से कामदेव प्रसन्न होते है। इसे धारण करने से वशीकरण और आकर्षण होता हैं । जीवन के सभी ऐशो-आराम, सुन्दरता, रिद्धी-सिद्धी और प्रसिद्धी, वशीकरण एवं लक्ष्मी प्राप्ति हेतु इसका उपयोग लाभकारी होता हैं। जो व्यक्ति सुधा-रसायन का प्रयोग करना चाहते हैं, जो धातुओं के निर्माण के लिए कृतसंकल्प हैं जिसका स्वभाव रसिक हैं उन्हे इस रूद्राक्ष के धारण से सिद्धि प्राप्त होती हैं, सभी कामनाओं की पूर्ति अर्थ-लाभ, रस-रसायन की सिद्धियॉ और सम्पूर्ण सुख-भोग मिलता हैं । 
     इस रूद्राक्ष पर कामदेव के साथ उनकी पत्नी रति का भी निवास हैं इसीकारण ये रूद्राक्ष दाम्पत्य जीवन की सभी खुशियां प्रदान कराने में सक्षम हैं। हिमालय में स्थित तपस्वी और योगीगण तेरहमुखी रूद्राक्ष की अध्यात्मिक उपलब्धियों से वशीभूत होकर इस रूद्राक्ष को धारण करते हैं। इसके उपयोग से किडनी, नपुंसकता, मुत्राशय के रोग, कोढ़, गर्भावस्था के रोग, शुक्राणु की कमी आदि में आश्चर्यजनक लाभ होता हैं ।
 चौदहमुखी रूद्राक्ष - चौदहमुखी रूद्राक्ष श्री कंठ स्वरूप हैं । यह रूद्रदेव की ऑखों से विशेष रूप से उत्पन्न हुआ हैं। जो व्यक्ति इस परमदिव्य रूद्राक्ष को धारण करता है, वह सदैव ही देवताओं का प्रिय रहता हैं । यह रूद्राक्ष त्रिकाल सुखदायक हैं । यह समस्त रोगों का हरण करने वाला सदैव आरोग्य प्रदान करने वाला हैं । इसके धारण करने से वंशवृद्धि अवश्य होती हैं । इसके उपयोग द्वारा जातक की सभी तरह के बुरे तत्वों से रक्षा होती हैं । यह जातक को गरीबी से दूर रखता हैं । छटी इन्द्रीय व अर्न्तज्ञान तथा अतिंद्रिय शक्ति का मालिक बनाता हैं। चौदहमुखी रूद्राक्ष में हनुमान जी का भी अधिवास माना गया हैं यह रूद्राक्ष भूत, पिशाच, डाकिनी, शकिनी से भी रक्षा करता हैं । इससे बल और उत्साह का वर्धन होता हें । 
     इससे निभ्रयता प्राप्त होती हैं और संकटकाल में सरंक्षण प्राप्त होता हैं । विपत्ति और दुर्घटना से बचने के लिए हनुमान जी (रूद्र) के प्रतीक माने जाने वाले चौदहमुखी रूद्राक्ष को अवश्य प्रयोग करना चाहिए । यह रूद्राक्ष चमत्कारी हैं । इससे अनंतगुण विद्यमान हैं । शास्त्र प्रमाण के अनुसार मानव-वाणी से इनके गुणों का व्याख्यान संभव नहीं हैं इसका धारणकर्ता स्वर्ग को प्राप्त करता हैं । वह चौदहों भुवनों का रक्षक और स्वामी बन जाता हैं। जिसने चौदहमुखी रूद्राक्ष धारणकर लिया शनि जैसा क्रोधी ग्रह भी लाख चाहकर उसका बुरा नहीं कर सकता । यह शास्त्रोक्त सत्य हैं । साधन सम्पन्न लोगों को आवश्यक रूप से इस दिव्य रूद्राक्ष का उपयोग अवश्य करना चाहिए। इसके प्रयोग द्वारा निराशापन, मानसिक रोग, अस्थमा, पक्षाघात, वायु के रोग, बहरापन, केंसर, चित्तभ्रम, थकान और पैरों के रोगों में लाभ होता हैं। 
 गौरी शंकर रूद्राक्ष :- मुख वाले रूद्राक्षों में गौरीशंकर रूद्राक्ष सर्वोपरि हैं, जिस प्रकार लक्ष्मी का पूजन उनके पति नारायण (विष्णुजी) के साथ करने लक्ष्मी-नारायण की अभीष्ट कृपा प्राप्त होती हैं ठीक इसी प्रकार गौरी (माँ पार्वती) के साथ देवाधिदेव भगवान शिव का पूजन करने से गौरी-शंकर की अभीष्ट कृपा प्राप्त होती हैं और गौरीशंकर रूद्राक्ष धारण पूजन से तो गौरीशंकर की कृपा निश्चित रूप से प्रापत होती ही हैं इससे किंचित मात्र भी संदेह नहीं हैं ।
      इसके उपयोग से पारिवारिक एकता, आत्मिक ज्ञान, मन और इंद्रियों पर काबू, कुण्डलिनी जागरण एवं पति-पत्नि की एकता में वृद्धि होती हैं। बड़े से बड़ा विघ्न इस रूद्राक्ष के धारण करने से समूल नष्ट होता हैं जन्म के पाप इस रूद्राक्ष के धारण मात्र से काफूर हो जाते हैं गौरीशंकर रूद्राक्ष में गौरी स्वरूप भगवती पार्वती का निवास होने के कारण इस रूद्राक्ष पर भगवान शिव की विशेष कृपा हैं मानसिक शारीरिक रोगों से पीड़ित मनुष्यों/स्त्रियों के लिए ये रूद्राक्ष दिव्यौषधि की भांति काम करता हैं । जन्म पत्री में यदि दुखदायी ‘‘कालसर्प योग‘‘ पूर्णरूप से अथवा आंसिक रूप से प्रकट होकर जीवन को कष्टमय बना रहा हो तो व्यक्ति को अविलम्ब 8 मुखी + 9 मुखी + गौरीशंकर रूद्राक्ष अर्थात तीनों ही रूद्राक्षों का संयुक्त बन्ध बनवाकर धारण करना चाहिये क्योकिं कालसर्प दोष केवल शिव कृपा से ही दूर होता हैं और गौरीशंकर रूद्राक्ष के साथ राहू एवं केतु के 8 एवं 9 मुखी रूद्राक्ष बन्ध निश्चित रूप से कालसर्प योग से पूर्णतः मुक्ति दिलाने में सर्वश्रेष्ट हैं । 
 गणेश रूद्राक्ष :- सन्तान प्राप्ति में बाधा एवं वैवाहिक अडचनें और विलम्ब होने पर ‘‘गणेश रूद्राक्ष‘‘ का धारण चमत्कार दिखाता हैं । विघ्न विनाशक गणेश माँ पार्वती एवं देवाधि देव भगवान शंकर की पूर्ण कृपा प्रदायक ये रूद्राक्ष दिव्य हैं परम दुर्लभ हैं। इसके प्रयोग से विद्या व ज्ञान प्राप्ति, मानसिक असंतोष एवं सभी तरह के अवरोध दूर होते हैं । विशेष रूप से संतान बाधा एवं पुत्र-पुत्री के विवाह में आ रही बाधा को निश्चित दूर करके अविलम्ब कार्य सिद्धि प्रदान करता हैं । त्वचा रोग, हिचकी, गुप्तरोग, मानसिक अशांति, सर्पदंश, केंसर एवं तांत्रिक विद्या से होने वाले दुष्परिणामों में उत्तम लाभ देता हैं। 
 पथरी रूद्राक्ष :- यह रूद्राक्ष उत्कृष्ट गुणवन्त रूद्राक्ष हैं । आमतौर पर पाए जाने वाले रूद्राक्ष से इसकी गुणवत्ता काफी उच्च होती हैं । इसमें विटामिन और इलेक्ट्रोमेग्नेटिक तरंगो की मात्रा अधिक होती हैं । पथरी रूद्राक्ष कुदरती तौर पर मजबूत होने के कारण इसकी आयु कई सौ साल की होती हैं। उच्च परिणाम के लिए पथरी रूद्राक्ष धारण करना चाहिए ।


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