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जाने और समझें चातुर्मास क्या है, क्यों होते हैं चातुर्मास में विवाह निषेध

हमारी सनातन संस्कृति में व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के 4 महीने को'चातुर्मास' कहा गया है। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए ये 4 माह महत्वपूर्ण होते हैं। इस दौरान शारीरिक और मानसिक स्थिति तो सही होती ही है, साथ ही वातावरण भी अच्छा रहता है। चातुर्मास 4 महीने की अवधि है, जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। चातुर्मास्य और विवाह निषेध की परम्परा आषाढ़ मास के एकादशी के दिन को हरिशयनी एकादशी कहा जाता है । ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि इस वर्ष जप-तप और साधना-सिद्धि का पवित्र चातुर्मास 1 जुलाई 2020 से प्रारंभ हो रहा है। भगवान श्रीहरि विष्णु के योगनिद्रा में चले जाने के कारण चातुर्मास में मांगलिक कार्यों पर प्रतिबंध लग जाता है। इस बार चातुर्मास में अधिकमास होने से चातुर्मास की अवधि बढ़कर 148 दिन हो गई है। इस वर्ष आश्विन माह का अधिकमास है। चातुर्मास 1 जुलाई देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर 25 नवंबर 2020 देवोत्थान एकादशी तक रहेगा। इस दौरान एक ओर जहां विवाह आदि मांगलिक कार्य बंद हो जाते हैं, वहीं तीज-त्योहारों का उल्लास भी छाएगा। अधिकमास के कारण आश्विन मास से लेकर आगे के महीनों में आने वाले तीज-त्योहार भी 20 से 25 दिन तक आगे बढ़ जाएंगे।
Learn-and-understand-what-Chaturmas-is-why-there-are-prohibitions-in-Chaturmas-जाने और समझें चातुर्मास क्या है, क्यों होते हैं चातुर्मास में विवाह निषेध     ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान श्री महाविष्णु चार महीने की अखण्ड निद्रा में चले जाते हैं।वर्षा के इन चार महीनों को विष्णु शयन के कारण विवाहादि शुभ कार्यों का निषेध किया गया है ।यह धारणा उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है ।इस विषय पर विचार करना अप्रासंगिक नही होगा । हमारे भारत के सनातनी पंचागों के अनुसार वर्ष के ये चार माह जिन्हें वर्षाकाल के चार माह भी कहा जाता है देवताओं के शयन के रूप में न जाने कब से निर्धारित हो गये है। जिसका परिणाम यह हुआ कि इन चार महीनों में न तो विवाहादि शुभ कार्य होते हैं,न गृहप्रवेशादि ।कार्तिक मास में जब देवोत्थानी एकादशी होती है,तब देवताओं की नींद टूटती है।आषाढ़ शुक्ल की देवशयनी एकादशी से देव उठनी एकादशी तक का काल ब्लैक लिस्ट में जब से आया ,तबसे विवाहादि के मुहूर्त शेष आठ महीनों में सीमित होकर रह गये । इनमें से कभी शुक्रास्त,कभी गुर्वस्त अर्थात तारा डूबने के कारण विवाह के मुहूर्त नही मिलते हैं । इन सबके कारण विवाह मुहूर्त इतने सीमित होकर रह गये हैं कि एक दिन हजारों की संख्या में विवाह होने के कारण मैरेज हाल ,घोड़े-बाजा वाले,टेन्ट हाउस वालों पर उस दिन जो दबाव रहता है तथा समाज में जो असुविधा होती है ,उससे हम सब सुपरिचित हैं ।चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है।
           इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण हो जाती है।
आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के रोगाणु उत्पन्न हो जाते हैं। साथ ही इन दिनों ही कई बड़े त्यौहार आते हैं। त्यौहार व शादी दोनों क उल्लास और हर्श समय समय पर बना रहे। इसीलिए चार माह तक शादी ब्याह नहीं किए जाते हैं। विवाह मुहूर्त जैसी धार्मिक और ज्योतिषीय घटना का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव दूरगामी होता है ।एक और बात यह भी है कि उत्तर भारत में विवाह के साथ यह परम्परा न जाने कब से आ जुड़ी है कि विवाह रात में ही हों दिन में नही । विवाह मुहूर्त के अवसर पर बिजली के उपभोग पर पड़े भारी दबाव के कारण टांसफार्मरों के जलने से लेकर रात्रि को सड़कों पर ट्रैफिक जाम और वृद्धों और विद्यार्थियों की शान्ति में व्यवधान आदि समस्याएँ भी होती है ।रात्रि में या गोधूलि में विवाह मुहूर्त निकालने की घटना का शास्त्रीय आधार नही है । यह केवल मुगल काल में अनेक सामाजिक कारणों से हुई थी ।उस समय भी दिवा लग्न दक्षिण भारत में,महाराष्ट्र आदि में उत्कृष्ट माने जाते थे और आज भी माने जाते हैं ।उत्तर भारत मे भी विवाह दिन में विवाह का निषेध कभी नही रहा ।आजकल पंचागों मे दिवा लग्न उद्धृत किये जा रहे हैं।
-चातुर्मास्य में विवाह नही होने की स्थितियाॅ आज भी उत्तर भारत में देखी जा रहीं हैं,जिसका कारण देवों का शयन बताया जाता है ।कई बार विद्वानों द्वारा स्पष्ट भी किया गया है कि देवता इतने आलसी नही हैं कि चार महीने तक सोते रहें और भगवान विष्णु तो विश्व के प्रतिपालक हैं,सदा सजग रहते हैं । वे यदि एक दिन भी अधिक सो जायें तो विश्व की क्या स्थिति होगी? इसकी कल्पना की जा सकती है ।
इस बार चातुर्मास पांच महीने का होगा???
पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं की इस वर्ष अधिमास पड़ेगा जिस कारण से आश्विन माह दो होंगे। अधिमास होने के कारण चातुर्मास चार महीने के बजाय पांच महीने का होगा। ऐसे में इसके बाद सभी तरह के त्योहार आम वर्षो के मुकाबले देरी से आएंगे। जहां श्राद्ध के खत्म होने पर तुरंत अगले दिन से नवरात्रि आरंभ हो जाते लेकिन अधिमास के होने से ऐसा नहीं हो पाएगा। इस बार जैसे ही श्राद्ध पक्ष खत्म होगा फिर अगले दिन से आश्विन मास का अधिमास आरंभ हो जाएगा।
क्या होता है अधिमास???
हिंदू कैलेंडर के अनुसार हर तीन वर्ष में एक बार एक अतिरिक्त माह आता है। इसे ही अधिमास, मलमास और पुरुषोत्तम माह के नाम से जाना जाता है।
क्यों आता है हर तीन साल में अधिमास???
पंडित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार वैदिक हिंदू कैलेंडर सूर्य मास और चंद्र मास की गणना के आधार पर चलता है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार एक सूर्य वर्ष 365 दिन और करीब 6 घंटे का होता है। वहीं एक चंद्र वर्ष  में 354 दिन होते हैं। इन दोनों का अंतर लगभग 11 दिनों का होता है। धीरे-धीरे तीन साल में यह एक माह के बराबर हो जाता है। इस बढ़े हुए एक महीने के अतंर को दूर करने के लिए हर तीन साल में एक अतिरिक्त महीना आ जाता है। इसे ही अधिमास कहा जाता है। अधिमास का महीना आने से ही सभी त्योहार सही समय पर मनाए जाते हैं। वेदकाल या वेदोत्तरकाल में विष्णु शयन जैसी कल्पना का तो प्रश्न ही नही उठता है ।पुराण काल में ब्रह्म पुराण,स्कन्दपुराण आदि में विष्णु भगवान के शयन और जागृत होने की परिकल्पना है ।वह रूपात्मक प्रतीक है ।त्रिविक्रम विष्णु भगवान सूर्य के ही स्वरूप हैं ।मेघाच्छन कालखण्ड में सूर्य के दर्शन नही हो पाते हैं। रात में भी बादलों के कारण ग्रह,नक्षत्र प्रकाश नही दे पाते हैं,अतः सूर्य (विष्णु)के शयन और देवों के सोने की परिकल्पना की गई ।इस कारण पौराणिक रूपक कल्पना के कारण चार महीनों के लिए विवाहादि कार्यों पर रोक लग गयी।

निर्णय सिन्धु,धर्म सिन्धु आदि ग्रन्थों में या किसी भी शास्त्र में चार महीनों तक विवाह के निषेध की बात नही मिलती है ।गुरु आदि ग्रहों के प्रतिकूल होने पर विवाह निषेध का उल्लेख है,किन्तु आषाढ़ से कार्तिक तक विवाह का निषेध नहीं पाया जाता है ।बौधायन सूत्र मे स्पष्ट कहा गया है -

“सर्वे मासा विवाहस्य शुचि तपस्तपस्यवर्जम् । 
–आपस्तम्ब सूत्र भी कहता है -“सर्व ॠतवो विवाहस्य ।शैशिरौ मासौ परिहाय्य,उत्तमं न नैदाद्यम्। 

–अर्थात तीव्र शिशिर ॠतु होने पर विवाह न किया जाय,गर्मी में विवाह उत्तम होता है,बाकी सभी मासो में विवाह किया जा सकता है ।

निर्णय सिन्धु स्वयं स्पष्ट करता है कि आचार्य चूड़ामणि ग्रन्थ में,ज्योतिष के सन्दर्भ से गर्ग और राजमार्तण्ड आदि के प्रमाण से कहा गया है कि–

“मांगल्येषु विवाहेषु कन्यासंवरणेषु च ।दशमासाः प्रशस्यन्ते चैत्र पौष विवर्जिताः 
“-अर्थात चैत्र और पौष के अलावा हर महीने में विवाह किया जा सकता है ।

मध्यकाल में गत कुछ सदियों के बीच जब वर्षा ॠतु में यात्रा आदि अत्यन्त असुविधाजनक होने लगी और वर्षा ॠतु में सबको यात्रा निषेध का अनुरोध किया जाने लगा,तो वर यात्रा का भी निषेध कर दिया गया।,यही इसका कारण प्रतीत होता है ।इसी तरह शीत ॠतु मे शीत प्रधान अंचलों में विवाह वर्जित कर दिये गये ।उत्तर भारत में ॠतु की असुविधा का यह कारण किसी समय में शास्त्रीय और ज्योतिषीय निषेध भी बन गया होगा । धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों में जिस प्रकार के विधि-निषेध हैं,उससे हम अनुमान कर सकते हैं कि उनकी दृष्टि शुभाशुभ पर उतनी नही हैं जितना कि सुविधा-असुविधा पर है ।आचार्य शौनक का कथन है कि वर्षा के दिनों में,अधिक मास में,ग्रहों की प्रतिकूलता में,विवाह,यात्रा,मकान बनाने का कार्य आदि जहाँ तक हो सके नही करना चाहिए । यह कहकर उन्होंने सुविधा-असुविधा को परिलक्षित किया है ।पूरे चार महीने विवाह के लिए निषिद्ध हैं।,यह स्पष्ट नही कहा गया है ।एक स्थान पर इतना संकेत है कि कुछ लोग आषाढ़ से लेकर कार्तिक तक विवाह को वर्जित मानते हैं ।कालादर्श में तो कहा गया है कि यदि रात्रि में विवाह करना है तो बारह माह में विवाह कभी भी किये जा सकते हैं ।विवरण का आशय यह है कि विवाह के लिए जोर चार महीने निषेध किये गये हैं वह परम्परा का अनुसरण अधिक लगता है,धर्मशास्त्र,खगोलीय वास्तविकता और तर्कदृष्टि का अनुसरण कम ।
          उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हैं कि इन चार महीनों में तमाम तरह के शुभ कार्य करना निषेध रहेगा जबकि धार्मिक आयोजन पुण्यदायक माने जाएंगे। इस समयावधि में विभिन्न स्थानों पर श्रीमद् भागवत, रामायण एवं अन्य धार्मिक आयोजन बड़ी संख्या में होंगे।इन चार महीनों में विशेष देव आराधना की जाती है। इस दौरान कई हिन्दू तीज त्यौहार भी आते हैं। इस दौरान विवाह आदि व्यक्तिगत मांगलिक कार्य वर्जित रहते हैं। देश के तमाम साधू-संत चातुर्मास करने अलग-अलग सिद्ध स्थानों पर पहुंचते हैं और विशेष साधना में लीन हो जाते हैं। चातुर्मास समाप्त होने पर वह किसी दूसरी जगह जाकर दोबारा से साधना शुरू करते हैं।चातुर्मास में यात्रा करने से यह बचते हैं, क्योंकि ये वर्षा ऋतु का समय रहता है, इस दौरान नदी-नाले उफान पर होते है तथा कई छोटे-छोटे कीट उत्पन्न होते हैं। इस समय में विहार करने से इन छोटे-छोटे कीटों को नुकसान होने की संभावना रहती है। इसी वजह से जैन धर्म में चातुर्मास में संत एक जगह रुककर तप करते हैं। चातुर्मास में भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। देवउठनी एकादशी के बाद विष्णुजी फिर से सृष्टि का भार संभाल लेते हैं।
जानिए चातुर्मास में क्या खाएं और न खाएं??
इस दौरान बैंगन, मूली और परवल न खाएं। दूध, शकर, दही, तेल, पत्तेदार सब्जियां, नमकीन, मसालेदार भोजन, मिठाई और सुपारी का सेवन नहीं किया जाता है। मांसाहार और शराब का सेवन भी वर्जित है। शहद या अन्‍य किसी प्रकार के रस का प्रयोग भी नहीं किया जाता है। श्रावण में पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक, आलू, कंदमूल यानी जमीन के अंदर उगने वाली सब्जियां आदि, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक माह में प्याज, लहसुन एवं उड़द की दाल आदि का त्याग कर दिया जाता है।
जानिए चातुर्मास के व्रत नियम को---
चातुर्मास में फर्श पर सोना और सूर्योदय से पहले उठना चाहिए। इन 4 महीनों में ज्यादातर समय मौन रहने की कोशिश की जाती है। हो सके तो दिन में केवल एक बार ही भोजन करना चाहिए। सहवास न करें और झूठ न बोलें। पलंग पर नहीं सोना चाहिए। हर तरह के संस्कार और मांगलिक कार्य भी इन दिनों में नहीं किए जाते हैं। नियम और संयम से रहने के लिए इन 4 महीनों में हर तरह की भौतिक सुख सुविधाओं से दूर रहने की कोशिश की जाती है। शरीर को आराम नहीं दिया जाता है और लगातार भगवान के नाम का जाप किया जाता है। 
इस समय करें भगवान का ध्यान--
इन 4 महीनों में किया गया शारीरिक तप भगवान से जुड़ने में मदद करता है। चातुर्मास में शरीरिक और मानसिक तप के अलावा मन की शुद्धि पर भी जोर दिया गया है। जिसे धार्मिक और आध्यात्मिक तप भी कहा जा सकता है। इस तरह के तप से मन में नकारात्मक विचार और गलत काम करने की इच्छाएं पैदा नहीं होती। इन दिनों में जप-तप और ध्यान की मदद से परमात्मा के साथ जुड़ने की कोशिश की जाती है। जिससे सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। 
चातुर्मास के वैज्ञानिक महत्व को समझें--
चातुर्मास धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्व पूर्ण है। इन दिनों में परहेज करने और संयम से जीवन जीने पर जोर दिया जाता है। वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो इन दिनों में  बारिश होने से हवा में नमी बढ़ जाती है। इस कारण बैक्‍टीरिया और कीड़े-मकोड़े बढ़ जाते हैं। जिनकी वजह से संक्रामक रोग और अन्य तरह की बीमारियां होने लगती हैं। इनसे बचने के लिए खान-पान में सावधानी रखी जाती है और संतुलित जीवनशैली अपनाई जाती है।

माँ बगलामुखी के इस मन्त्र से शत्रु, भूत-प्रेत, जेल, मुकदमा या हो धन की समस्या, हर बाधा होगी दूर

हर समस्या का समाधान हैं इस बीज मंत्र में

शत्रुओं पर विजय प्राति, शत्रु भय से मुक्ति तथा प्रभावशाली वाक-शक्ति की प्राप्ति के लिए मां बगलामुखी की साधना की जाती है।देवी बगलामुखी दस महाविद्याओं में से आठवीं महाविद्या है। माता बगलामुखी की उपासना से शत्रुनाश, वाकसिद्धि, वाद-विवाद में विजय प्राप्त होती है। बगलामुखी मंत्र सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्ति दिलाते है , रोगों की पुरानी समस्याओं और दुर्घटनाओं से सुरक्षा प्रदान करते है और संरक्षण देते है। ऐसा कहा जाता है की बगलामुखी मंत्र के नियमित जप से अहंकार नष्ट होता है और शत्रुओं का नाश होता है।
From-this-Mantra-of-Baglamukhi-Mantra-ghost-prison-lawsuit-or-money-problem-every-obstacle-will-be-overcome    ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि माँ बगलामुखी की इस साधना में एक विशेष संख्या में बगलामुखी मंत्र के जाप का विधान है। सामान्य शत्रु बाधा दूर करने के लिए इस मंत्र का कम से कम 10 हजार बार जाप करना करना चाहिए, लेकिन अगर कोई बहुत बड़ी शत्रु बाधा हो या शत्रुता में जीवन-मरण का प्रश्न हो तो ऐसे में कम से कम 1 लाख बार इस मंत्र का जाप करने वाला कभी भी शत्रु से हारता नहीं। ऐसे व्यक्ति को हर प्रकार के वाद-विवाद में विजय मिलती है और वह अपनी बातों को सही सिद्ध कर पाता है। कई जगहों पर मां बगलामुखी के सर्व कामना पूर्ति बीज मंत्र को अशुद्ध रूप से लिखा पाया जाता है, और अगर कोई अशुद्ध मंत्र का उच्चारण या जप करता है तो उसे कोई बड़ी हानि भी हो सकती है । मंत्र के जानकार कहते है कि वहीं यदि इस मन्त्र का सही उच्चारण किया जाय तो मां बगलामुखी का यह बीज मंत्र साधक की समस्त मनोकानाओं की पूर्ति कर सकता हैं । बगलामुखी माता के उक्त मंत्र का जप करें, जप से विधिवत माँ बगलामुखी का पूजन करें। एवं निश्चित संख्या में जप पूरा होने के बाद गाय के शुद्ध घी से 251 बार हवन करें। हवन में आम, पलाश, गुलर आदि का समिधाओं का उपयोग करें।

बगलामुखी मंत्र के लिए कुल जप संख्या--
1,25000 बार

बगलामुखी मंत्र जप का श्रेष्ठ समय या मुहूर्त---
शुक्ल पक्ष, चन्द्रावली, शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि, रात्रि समय

इस मंत्र के शुद्ध और भावपूर्ण उच्चारण से शत्रु को शांत किया जा सकता है, मुकदमा भी जीत सकते है, आधिदैविक और आधिभौतिक समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है, बंधनों से मुक्ति मिल सकती है, जेसै कोई बेकसूर व्यक्ति जेल में है या जेल जाने के आसार हैं तो इस मंत्र की साधना से 100% बच सकता हैं । भूत प्रेत और जादू टोन की बाधा से रक्षा होती है, सारे डर खत्म हो जाते है । धन संबंधित समस्या दूर हो जाती हैं । इस साधना से कोई भी अपने व्यक्तित्व को प्रभावशाली बना सकता है ।

शुद्ध बगलामुखी बीज मंत्र---

ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्व दुष्टानाम वाचं मुखम पदम् स्तम्भय ।
जिव्हां कीलय बुद्धिम विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा ।।

बगलामुखी मन्त्र के प्रारंभ में ह्री या ह्लीं दोनों में से किसी भी बीज का प्रयोग किया जा सकता है, ह्रीं तब लगायें जब आपका धन किसी शत्रु ने हड़प लिया है और ह्लीं का प्रयोग शत्रु को पूरी तरह से परास्त करने के लिए ही करें । इससे शत्रु को वश में करने की अद्भुत शक्ति मिलती है, लेकिन यह सब एक दो दिन में नहीं होगा बल्कि इसके लिए संकल्प लेकर कम से कम 40 दिन का विशेष अनुष्ठान करने का नियम हैं । बिना नियमों की जानकारी इस साधना को नहीं करना चाहिए । अन्यथा समस्या से छूटकारा नहीं सकेगा । माँ बगलामुखी अपने भक्त से श्रद्धा और विशवास चाहती हैं, यदि आपको पूरी श्रद्धा है और नियमों के साथ साधना करेंगे तो सफलता जरूर मिलेगी ।नलखेड़ा, मध्यप्रदेश स्थित विश्वप्रसिद्ध मां बगलामुखी मन्दिर, जो महाभारत कालीन एवम पांडवों द्वारा स्थापित हैं, में यह अनुष्ठान सम्पन्न करवाने हेतु पंडित दयानन्द शास्त्री जी से सम्पर्क कर सकते हैं।

ऐसे करे शत्रु को परास्त---

अगर कोई शत्रु अत्यंत शक्तिशाली हो तो ऐसी अवस्था में यदि मां बगलामुखी के इस मन्त्र को नीचे लिखे अनुसार शुद्धता पूर्वक उच्चारण कर जप किया जाए तो शत्रु से तुरंत सुरक्षा मिलती है ।

ॐ ह्लीं बगलामुखी अमुक (शत्रु का नाम लें ) दुष्टानाम वाचं मुखम पदम स्तम्भय स्तम्भय ।
जिव्हां कीलय कीलय बुद्धिम विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा ।।

इस मन्त्र में अमुक शब्द के स्थान पर शत्रु का नाम लेकर कम से कम 11 सौ बार एक दिन में जप करें, ऐसा करने से मां बगुलामुखी साधक की रक्षा करेंगी एवं साधक का शत्रु या तो किसी मुसीबत में फंस जाएगा या फिर कोई भारी गलती करके स्वयं ही फंस जाएगा ।

सम्पुट युक्त बगलामुखी मन्त्र--

सम्पुट मन्त्र की शक्ति को दोगुना करने के लिए किया जाता है, किसी भी मन्त्र की शक्ति को सम्पुट द्वारा बढ़ने के लिए साधक को पहले बिना सम्पुट से निश्चित संख्या में जप करना चाहिए, उसके बाद ही सम्पुट लगाया जा सकता है । मन्त्र के आदि में और अंत में बीज लगाने से मन्त्र सम्पुट युक्त हो जाता है ।

यह होते हैं बगलामुखी मंत्र के लाभ---
ऐसा माना जाता है की बगलामुखी मंत्र में चमत्कारी शक्तियां है।पंडित दयानन्द शास्त्री जी के अनुसार माँ बगलामुखी मंत्र शत्रुओं पर विजय सुनिश्चित करने के लिए जाना जाता है। प्रशासन और प्रबंधन के लोगों को , नेताओं को , ऋण या मुकदमे की समस्याओं का सामना कर रहे लोगो को बगलामुखी मंत्र का विशेष सुझाव दिया जाता है। बगलामुखी मंत्र का उपयोग व्यापार में क्षति का सामना कर रहे व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है , जैसे वित्तीय समस्याएं , झूठी अदालत के मामले , निराधार आरोप , ऋण की समस्याएं , व्यापार में बाधाएं आदि। प्रतियोगी परीक्षाओं और वाद-विवाद आदि में भाग लेने वाले लोगों के लिए भी बगलामुखी मंत्र प्रभावी है। बगलामुखी मंत्र अनिष्ट आत्माओं और अशुभ दृष्टि से सुरक्षित रहने में सहयोग करता है।नलखेड़ा, मध्यप्रदेश स्थित विश्वप्रसिद्ध मां बगलामुखी मन्दिर, जो महाभारत कालीन एवम पांडवों द्वारा स्थापित हैं, में यह अनुष्ठान सम्पन्न करवाने हेतु पंडित दयानन्द शास्त्री जी से सम्पर्क कर सकते हैं।

11 मई को शनि देव होंगे वक्री, इन 5 राशियों पर है शनि का अशुभ प्रभाव

11 मई, 2020 को शनिदेव अपनी मार्गी चाल को छोड़ कर वक्री होने जा रहे हैं। 142 दिनों तक यानि 29 सितंबर तक वे इसी अवस्था में रहेंगे तत्पश्चात वे फिर से मार्गी हो जाएंगे। शनि देव, सोमवार, 11 मई 2020 को सुबह के 9 बजकर 27 मिनट से वक्री हो जाएंगे और फिर बुधवार, 29 सितंबर 2020 को 10 बजकर 30 मिनट से फिर से मार्गी हो जाएंगे। उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री के मतानुसार शनि की ये बदलती चाल आम जनमानस की तनाव बढ़ाने वाली साबित होगी। आमतौर पर शनि एक राशि में लगभग ढाई वर्षों तक वास करते हैं। 24 जनवरी 2020 को शनि ने धनु से मकर राशि में प्रवेश किया था। 
   ज्योतिष विशेषज्ञ पण्डित दयानन्द शास्त्री जी मानते हैं की जब शनि वक्री अवस्था में आते हैं तो बहुत कष्ट  दुख देते हैं। जिन राशियों पर शनि की नज़र होती है, उनको बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ऐसा भी कहा जा सकता है की उनके जीवन से सुख-शांति सदा के लिए समाप्त हो जाती है। शनि न्याय के देवता हैं। जब वे वक्री होते हैं तो वे अपना अशुभ प्रभाव सबसे पहले उन राशियों पर डालते हैं जिन पर साढ़ेसाती या ढैय्या चल रही होती है। यदि आपकी जन्मकुंडली में शनि अशुभ भाव में हैं तो आप पर दुखों का कहर टूटने वाला है। अगर शनि शुभ भाव में हैं तो कोई भी आपका अमंगल नहीं कर सकता।
Shani-Dev-will-be-retrograde-on-May-11-2020-know-the-effects-and-remedies-are-inauspicious-effects-of-Saturn-on-5-zodiac-signs- 11 मई को शनि देव होंगे वक्री, जानिए प्रभाव एवम उपाय- इन 5 राशियों पर है शनि का अशुभ प्रभाव    11 मई 2020 को शनि अपनी राशि मकर में वक्री हो जाएंगे। इसके बाद 13 मई को शुक्र और फिर 14 मई को बृहस्पति भी वक्री हो रहे हैं। इसके अलावा, 18 जून को बुध उलटी चाल से चलने लगेंगे। गौरतलब है कि 18 जून से 25 जून के बीच ये चारों ग्रह एक ही समय पर प्रतिगामी यानी वक्र रहेंगे। ग्रहों की यह स्थिति 15 जुलाई तक कालपुरुष कुंडली में बने काल सर्प दोष के साथ परस्पर व्याप्त होती है जिसका परिणाम चिंताजनक हो सकता है।

जांने ओर समझें  प्रतिगामी शनि के परिणाम को–
प्रतिगामी शनि उन कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए शक्ति प्रदान करते है जिन्हें अतीत में अधूरा छोड़ दिया गया था। शनि भारत की कुंडली में नौवें और दसवें भाव के स्वामी हैं, अर्थात योगकारक ग्रह हैं। शनि 11 मई से 29 सितंबर 2020 तक मकर राशि में वक्री रहेंगे जो भारत की कुंडली के नौवें भाव में है।  भारतीय पंचाग गणना अनुसार 11 मई से 2020 से शनि वक्री होगे। आगामी 143 दिनों तक वक्री रहकर गोचर में पर प्रभाव देंगे। न्याय के देवता है जातक के कर्मों के मुताबिक राजा और रंक बनाने में कोई कोर कसर नही छोड़ते। पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया कि  कोरोना महामारी चलते कालाबाज़ारी जमाखोरी और मुनाफाखोरी करने की पृवत्ति में लिप्त व्यापारियों पर सत्ता और प्रशासन का शिकंजा कसेगा। 
इन 143 दिनों में उद्योग के क्षेत्र में शनै शनै सुधार आरम्भ होगा उद्योगपतियों और मजदूरों में विश्वास पैदा होने से परस्पर एक दूसरे को सहयोग करेंगे एवम उद्योग सम्बन्धी कार्य सुचारू शुरू होंगे । सम्भवतः श्रम कानूनों में भी सरकार कुछ ऐतिहासिक परिवर्तन करते हुए संगठित एवं असंगठित मज़दूरों के पक्ष में करेगी, ऐसे संकेत शनि दे रहे है। सभी वणिज व्यापार क्षेत्र एवम जनता के बीच कानून की परिपालना सख्त प्रशासनिक रवैये व अनुशासन के कारण चुस्त दुरुस्त दिखाई देगी। देश की सुरक्षा के मामलों में सतर्कता व त्वरित कठोरतम कार्यवाही देखने को मिलेगी। गरीबों एवम मेहनतकशों में असुरक्षा की भावना भी पनपेगी भयाक्रांत वातावरण कुल मिलाकर देश मे पसरेगा। सम्पूर्ण देश में शिक्षा एवम स्वास्थ्य के क्षेत्र ने नवीनतम दिशा निर्देश जारी होने की संभावना है ।
         पण्डित दयानन्द शास्त्री के अनुसार इस अवधि में कार्यपालिका विधायी पालिका व न्यायपालिका में जनहित के गम्भीर विषयों को लेकर भारी टकराव तथा आम जनता में व्याप्त अस्थिरता के कारण भारी जनाक्रोश होगा। सत्ताधारियो को नम्र होकर झुकना पड़ेगा। इस बीच यातायात की सभी सेवाएं, अंतरराष्ट्रीय हवाई, घरेलू हवाई सेवाएं सुचारू रूप से शुरू होगी रेल व सड़क यातायात भी धीरे धीरे यथावत शुरू होगा। आवागमन सुचारू होकर प्रत्येक क्षेत्र में बाधित रुकी थमी गतिविधियों को गति प्रदान करेगा। देश पटरी पर आने लगेगा शनि सबको राहत देगे व्याप्त भय का वातावरण समाप्त होगा। शनि का प्रतिगमन जिम्मेदारियों और काम के बोझ के साथ एक कठिन अवधि को दर्शाता है। लेकिन यह लोगों को अपने कौशल को अधिक निखारने और यथार्थवादी एवं व्यवहारिक बनने में भी मदद करेगा। कोरोनावायरस के कारण आने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए नए कानून और नीतियां बनाई जा सकती हैं। न्यायिक सुधार और न्यायिक ढांचे का पुनर्गठन भी हो सकता है।

इन 5 राशियों पर है शनि का अशुभ प्रभाव---
ज्योतिषशास्त्र में शनि को न्याय का कारक ग्रह माना गया है। शनि के वक्री होने का सबसे ज्यादा असर उन राशि के जातकों पर पड़ेगा जिन राशि पर शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या चल रही होगी। अगर आपकी कुंडली में शनि अशुभ भाव में बैठा है तब आपको इसका कष्ट देखने को मिलेगा वहीं अगर आपकी कुंडली में शनि शुभ भाव में है तो आपको इसका  अशुभ असर देखने को नहीं मिलेगा।
वर्तमान दौर में धनु, मकर और कुंभ राशियों पर शनि की साढ़ेसाती चल रही है। वहीं 2 अन्य राशि मिथुन और तुला पर शनि की ढैय्या चल रही है। ऐसे में शनि के वक्री होने पर कुल पांच राशियों पर सबसे ज्यादा असर देखने को मिलेगा। अन्य 7 राशियों के जातकों को घबराने की अवश्यकता नहीं है।
वक्री शनि को बली बनाने के इन उपायों से होगा लाभ --

शक्तिशाली है ये मन्त्र:---
कर्मफलदाता शनि देव को प्रसन्न करने के लिए शनि मंत्र सबसे अधिक प्रभावशाली माना जाता है। शनि की साढ़ेसाती हो या फिर ढैया सबके लिए शनि-मंत्र रामबाण उपाय है। शनिवार का दिन शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए अत्यंत शुभ दिन होता है। शनि दोष से मुक्ति पाने के लिए शास्त्रों में बहुत सारे उपाय बताए गए हैं लेकिन जो शक्ति शनि मंत्र है वह अन्य किसी उपाय में नहीं है।

 शनि स्तोत्र :---
 नमस्ते कोणसंस्थाय पिडगलाय नमोस्तुते।
 नमस्ते बभ्रुरूपाय कृष्णाय च नमोस्तु ते।।
 नमस्ते रौद्रदेहाय नमस्ते चान्तकाय च।
 नमस्ते यमसंज्ञाय नमस्ते सौरये विभो।।
 नमस्ते यंमदसंज्ञाय शनैश्वर नमोस्तुते।
 प्रसादं कुरू देवेश दीनस्य प्रणतस्य च।।
 शनि के इस स्तोत्र का पाठ करने से शनि के सभी दोषों से मुक्ति मिलती है। शास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि शनि देव को प्रसन्न करने के लिए इससे बेहतर कोई स्तोत्र नहीं है। इस स्तोत्र का कम से कम 11 बार पाठ करना चाहिए।

 वैदिक शनि मंत्र :---
 " ऊँ शन्नोदेवीर भिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये शंय्योर भिस्त्रवन्तुन : "

 पौराणिक शनि मंत्र :---
 "ऊँ ह्रिं नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम।
 छाया मार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।"

 शनि महाग्रह मन्त्र :---
ॐ नमोऽहते भगवते श्रीमते मुनि सुव्रततीर्थ कराय बरुणयक्ष बहुरु-पिणीयक्षी सहिताय ॐ आं क्रों ह्रीं ह्रः शनिमहाग्रह मम दुष्टग्रह रोगकष्ट निवारण सर्व शांति च कुरू कुरू हूं फट् ।।

 इस मन्त्र का जप 33 हजार करने का विधान दिया गया है।

शनिदेव को खुश करने के लिए शनिवार को सूर्योदय से पहले जगकर पीपल की पूजा करने से शनिदेव खुश होते हैं। शनिवार को पीपल के पेड़ में सरसों का तेल चढ़ाने से शनि देव अति प्रसन्न होते हैं। शनिवार को संध्याकाल में इन मंत्रों का जाप करने से शनि का प्रकोप शांत होता है। साथ ही शनिदेव को इस मंत्र से पूजा करने से जो भी शनि की महादशा भी खत्म होती है।
 शनि व्रत :---
 शनिवार का व्रत किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के प्रथम शनिवार से प्रारंभ करे और 19, 31 या 41 शनिवार तक करे। शनिवार के दिन प्रात: स्नान आदि करके काले रंग की बनियान धारण करे और सरसो के तेल का दान करे तथा तांबे के कलश मे जल, थोडे काले तिल​, लोंग​, दुध, शक्कर, आदि डाल के पीपल अथवा खेजडी के वृक्ष के दर्शन करते हुये पश्चिम दिशा कि तरफ़ मुख रखते हुये जल प्रदान करे. तथा "ॐ प्रां प्रीं प्रों स​: शनैश्चराय नम​: " इस बिज मंत्र का यथाशक्ति जाप करे। इस दिन भोजन में उडद दाल एवं केले और तेल के पदार्थ बनाये।
     भोजन से पुर्व भोजन का कुछ भाग काले कूत्ते या भिखारी को दे उसके बाद प्रथम 7 ग्रास उपरोक्त पदार्थ ग्रहण करे बाद में अन्य पदार्थ ग्रहण करे। अंतिम शनिवार को हवन क्रिया के पश्चात यथाशक्ति तील, छ्त्री, जुता, कम्बल​, नीला-काला वस्त्र​, आदि वस्तुओ का दान निर्धन व्यक्ति को करे। व्रत के दिन जल, सभी प्रकार के फल, दूध एवं दूध से बने पदार्थ या औषध सेवन करने से व्रत नष्ट नहीं होता है। व्रत के दिन एक बार भी पान खाने से, दिन के समय सोने से, स्त्री रति प्रसंग आदि से व्रत नष्ट होता है।
  • – प्रत्येक शनिवार को शनि देव का उपवास रखें।
  • – शाम को पीपल के वृक्ष में जल चढ़ाएं और सरसों के तेल का दीपक जलाएं।
  • – शनि के बीज मंत्र ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः का 108 बार जाप करें।
  • – काले या नीले रंग के वस्त्र धारण करें।
  • – गरीबों को अन्न-वस्त्र दान करें।

वैशाख के महीने की शुरुआत, जानिए वैशाख माह का महत्व और जानिए क्या करें, क्या न करें वैशाख महीने में

भारतीय हिंदू पंचांग के अनुसार, वैशाख मास सृष्टि की शुरुआत के पंद्रह दिन बाद शुरू होता है। यह पवित्र महीना व्यक्ति को व्यक्ति से समुदाय में उन्मुख होने के लिए प्रेरित करता है। पुराणों में इस महीने को जप, तप, दान का महीना कहा गया है। वैशाख महीने की शुरुआत में, तपिश का माहौल तैयार हो जाता है, इसलिए धार्मिक दृष्टिकोण से, इस महीने में, वरुण देवता का विशेष महत्व है। स्कंद पुराण के अनुसार, ब्रह्मा जी ने वैशाख महीने को सभी महीनों में सबसे अच्छा बताया है। जैसे सतयुग जैसा कोई दूसरा युग नहीं है। वेदों जैसा कोई शास्त्र नहीं। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। वैशाख का महीना जैसा कोई महीना नहीं होता। यह महीना, माँ की तरह, हमेशा सभी जीवित प्राणियों को सभी वांछित चीजें प्रदान करने वाला है। संपूर्ण देवता द्वारा पूजित धर्म यज्ञ, कर्म और तपस्या का सार है। जैसे वैदिक विद्या, मंत्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगा, नदियों में गंगा, तेजस में सूर्य, अस्त्र-शास्त्रों में चक्र, सुवर्ण में सुवर्ण धातु, वैष्णव शिव और रत्न में कौस्तुभमणि है, इसी तरह वैशाख माह धर्म के साधनों में पिछले महीनों के दौरान सबसे अच्छा है। भगवान विष्णु की कृपा पाने के लिए इस महीने में सूर्योदय से पहले स्नान करना चाहिए।
ब्रह्माजी वैशाख को सर्वश्रेष्ठ मानते थे---
पुराणों के अनुसार, वैशाख के महीने में, सभी भगवान और देवता भगवान विष्णु के कल्याण के लिए पानी में रहते हैं। एक मार्ग के अनुसार, जब लंबे समय के ध्यान के बाद राजा अम्बरीश गंगा तीर्थ की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने देवर्षि नारद को देखा। राजा ने विनयपूर्वक देवर्षि से पूछा – “देवर्षि! भगवान ने हर चीज में एक श्रेष्ठ कोटा बनाया है। लेकिन जो सबसे अच्छा है; इस पर नारद ने कहा कि जब समय विभाजित हो रहा था, उस समय ब्रह्मा जी ने वैशाख माह को बहुत पवित्र साबित किया था। वैशाख माह सभी प्राणियों की इच्छा को सिद्ध करता है। धर्म, त्याग, कर्म और व्यवस्था का सार वैशाख मास में है। संपूर्ण देवताओं द्वारा पूजा की जाती है और भगवान विष्णु द्वारा सबसे अधिक प्रेम किया जाता है।
वैशाख माह शुरु, पूरे माह तुलसी पूजन, स्नान-दान के साथ ये काम करना होगा शुभ---
 हमारी संस्कृति में वैशाख मास का बहुत महत्व है। शास्त्रों में वैशाख मास के दौरान किये जाने वाले बहुत-से यम-नियम आदि का जिक्र भी किया गया है, यानी आज से शुरू होकर वैशाख मास की पूर्णिमा तक ये यम-नियम आदि चलेंगे। अतः वैशाख मास का क्या महत्व है, इस दौरान किन नियमों का पालन करना चाहिए और उन नियमों का पालन करने से आपको कौन-से शुभ फलों की प्राप्ति होगी।  शास्त्रों में वैशाख पूर्णिमा का भी बड़ा ही महत्व है। विशाखा नक्षत्र से युक्त होने के कारण इसे वैशाख पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि वैशाख मास की पूर्णिमा को ही ब्रह्मा जी ने काले और सफेद तिल उत्पन्न किये थे, जिसके उपलक्ष्य में वैशाख पूर्णिमा को तिल युक्त जल से स्नान करने, अग्नि में तिलों की आहुति देने और तिल तथा मधु, यानी शहद का दान करने का विधान है। इस दिन ये सब कार्य करने से व्यक्ति के जीवन में खुशियां ही खुशियां आती हैं और आस-पास सब लोगों के साथ प्रेम भाव बना रहता है। आपको बता दूं कि वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस बार वैशाख मास की पूर्णिमा 07 मई 2020, गुरुवार को है।

वैशाख मास के दौरान भगवान विष्णु की पूजा का विधान है। इस दौरान भगवान विष्णु की माधव नाम से पूजा की जाती है। जानकारी के लिये बता दें कि वैशाख मास का एक नाम माधव मास भी है। स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड में भी आया है-

न माधवसमो मासो न कृतेन युगं समम्।
न च वेदसमं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम्।।   


अर्थात् माधवमास, यानी वैशाख मास के समान कोई मास नहीं है, सतयुग के समान कोई युग नहीं है, वेदों के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। अतः माधव मास का बड़ा ही महत्व है। इस माह के दौरान आपको ऊँ माधवाय नमः.. मंत्र का नित्य ही कम से कम 11 बार जप करना चाहिए।

Beginning-of-the-month-of-Vaishakh-know-the-importance-of-Vaishakh-month-and-know-what-to-do-what-not-to-do-in-Vaishakh-month- वैशाख के महीने की शुरुआत, जानिए वैशाख माह का महत्व और जानिए क्या करें, क्या न करें वैशाख महीने में
वैशाख मास के दिनों में जरुर करें ये काम---
  1. वैशाख मास के दौरान किये जाने वाले कार्यों में सबसे महत्वपूर्ण है - तुलसीपत्र से श्री विष्णु पूजा। जी हां, आज से लेकर पूरे 30 दिनों तक तुलसी की पत्तियों से भगवान विष्णु का पूजन किया जाना चाहिए। इससे व्यक्ति को करियर में तरक्की के साथ ही अच्छा स्वास्थ्य भी प्राप्त होता है। इसके अलावा उस व्यक्ति के घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। 
  2. तुलसी पूजन के साथ ही इस दौरान घर आंगन में तुलसी का पौधा लगाना भी शुभ होता है। इस दौरान घर, मन्दिर या कार्यस्थल पर तुलसी का पौधा लगाने से और उचित प्रकार से पौधे की देखभाल करने से व्यक्ति की सफलता सुनिश्चित होती है, लिहाजा आप जीवन में लगातार आगे बढ़ते जायेंगे।
  3. वैशाख या माधवमास के दौरान जप, तप, हवन के अलावा स्नान और दान का भी विशेष महत्व है। इस दौरान जो व्यक्ति श्रद्धाभाव से जप, तप, हवन, स्नान, दान आदि शुभकार्य करता है, उसका अक्षयफल उस व्यक्ति को प्राप्त होता है। जिस प्रकार कार्तिक मास के दौरान सुबह जल्दी उठकर स्नान के बाद भगवान की पूजा की जाती है, ठीक उसी प्रकार वैशाख मास के दौरान भी  सुबह जल्दी उठकर स्नान करना चाहिए और भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। ऐसा करने से व्यक्ति को अश्वमेघ यज्ञ के समान फल मिलता है, यानी उसे जीवन में तरक्की ही तरक्की मिलती है।
  4. वैशाख मास के दौरान घट दान, यानी मिट्टी का घड़ा दान करने का भी विधान है। इस दौरान अगर आप किसी मन्दिर में, बाग-बगीचे में, स्कूल में या किसी सार्वजनिक स्थान पर पानी से भरा मिट्टी का घड़ा रखेंगे, तो आपको बहुत ही पुण्य फल प्राप्त होंगे। इससे आपके जीवन में खुशहाली बनी रहेगी।
  5. शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास के दौरान अगर कुछ विशेष तिथियों में महत्वपूर्ण कार्यों की बात करें, तो वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी का पूजन करना चाहिए। माना जाता है कि इस तिथि को महर्षि जह्नु ने अपने दाहिने कान से गंगा जी को बाहर निकाला था। इस दिन मध्याह्न के समय गंगा जी की पूजा की जाती है।
  6. वैशाख शुक्ल सप्तमी के बाद अष्टमी तिथि को मां दुर्गा के अपराजिता स्वरूप की प्रतिमा को कपूर और जटामासी से युक्त जल से स्नान कराना चाहिए तथा स्वयं आम्ररस से, यानी आम के रस से स्नान करना चाहिए। आपको बता दूं कि श्री बगलामुखी जयंती भी 01 मई 2020 को ही मनायी जायेगी। इस दिन दस महाविद्याओं में से एक देवी बगलामुखी की उपासना की जाती है, जबकि दस महाविद्याओं में से ही एक देवी छिन्नमस्ता की जयंती इसी महीने में 06 मई बुधवार के दिन मनायी जायेगी और उसी दिन नृसिंह चतुर्दशी व्रत भी किया जायेगा।
दान का महीना है वैशाख-
इस महीने में, शिवलिंग पर जल चढ़ाने या गलंतिका (मटकी को लटकाना) को टांगने का विशेष गुण माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, इस महीने में प्याज डालना, छायादार वृक्षों की रक्षा करना, पशु-पक्षियों के भोजन की व्यवस्था करना, राहगीरों को पानी पिलाना, ऐसे कार्य मनुष्य के जीवन को समृद्धि के मार्ग पर ले जाते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, इस महीने में जल के दान का अत्यधिक महत्व है, अर्थात कई तीर्थों को करने से प्राप्त होने वाला फल वैशाख के महीने में जल दान करने से ही प्राप्त होता है। इसके अलावा, छाया चाहने वालों और प्रशंसक प्रशंसकों के लिए छतरियों का दान करने से प्रशंसक की इच्छा रखने वालों को ब्रह्मा, विष्णु और शिव का आशीर्वाद मिलता है। जो विष्णुप्रिया वैशाख में पादुका दान करता है वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक जाता है।
जानिए वैशाख के महीने में श्री श्री तुलसी जल दान का महत्व--
वैशाख के महीने में क्योंकि सूर्य के ताप में वृद्धि हो जाती है, इसलिए विष्णु के भक्त गणों को जल दान करने से श्रीहरि अत्यंत अत्यंत प्रसन्न होते हैं।  भगवान श्री हरि कृपा करके उनसे अभिन्न तुलसी वृक्ष को जल दान का एक सुयोग अथवा शुभ अवसर प्रदान करते हैं।
 लेकिन तुलसी को जल दान क्यों करना चाहिए ?
तुलसी श्रीकृष्ण की प्रेयसी हैं, उनकी कृपा के फल से ही हम भगवान श्री कृष्ण के सेवा का अवसर प्राप्त कर सकते हैं।  तुलसी देवी के संबंध में कहा गया है तुलसी के दर्शन मात्र से ही संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं , जल दान करने से यम भय दूर हो जाता है, रोपण करने से यानी उनको बोने से उनकी कृपा से कृष्ण भक्ति वृद्धि होती है और श्रीहरि के चरण में तुलसी अर्पण करने से कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है ।

पद्मपुराण के सृष्टि खंड में वैष्णव श्रेष्ठ श्री महादेव अपने पुत्र कार्तिक को कहते है
" सर्वेभ्य पत्र पुस्पेभ्य सत्यमा तुलसी शीवा सर्व काम प्रदत्सुतधा वैष्णवी विष्णु सुख प्रिया "

समस्त पत्र और पुष्प में तुलसी सर्वश्रेष्ठ हैं।  तुलसी सर्व कामना प्रदान करने वाली, मंगलमय, श्रुधा, शुख्या, वैष्णवी, विष्णु प्रेयसी एवं सभी लोको में परम शुभाय है।

 भगवान शिव कहते हैं ,
"यो मंजरी दलरे तुलस्या विष्णु मर्त्ये तस्या पुण्य फलम कर्तितुम नैव शक्तते 
तत्र केशव सानिध्य यात्रस्ती तुलसी वनम तत्रा ब्रह्म च कमला सर्व देवगने "

हे कार्तिक! जो व्यक्ति भक्ति भाव से प्रतिदिन तुलसी मंजरी अर्पण कर भगवान श्रीहरि की आराधना करता है , यहां तक कि मैं भी उसके पुण्य का वर्णन करने में अक्षम हूं।  जहां भी तुलसी का वन होता है  भगवान श्री गोविंद वही वास करते हैं और  भगवान गोविंद की सेवा के लिए लक्ष्मी ब्रह्मा और सारे देवता वही वास करते हैं।मूलतः भगवान श्री कृष्ण ने जगत में बध जीव गणों को उनकी सेवा करने का शुभ अवसर प्रदान करने के लिए , भगवान श्री कृष्ण ही तुलसी रूप में आविर्भूत हुए है, एवं उन्होंने तुलसी पौधे को सर्वाधिक प्रिय रूप में स्वीकार किया है । पताल खंड में यमराज ब्राह्मण को तुलसी की महिमा का वर्णन करते हैं वैशाख में तुलसी पत्र द्वारा श्री हरि की सेवा के प्रसंग में वह कहते हैं कि जो व्यक्ति संपूर्ण वैशाख मास में अनन्य भक्ति भाव से तुलसी द्वारा त्री संध्या भगवान श्रीकृष्ण की अर्चना करता है उस व्यक्ति का और पुनर्जन्म नहीं होता । 

 तुलसी देवी की अनंत महिमा अनंत शास्त्रों में अनंत शास्त्रों में वर्णित है लेकिन यह महिमा असीमित है अनंत है ब्रह्मवैवर्त पुराण में प्रकृति खंड में ऐसा वर्णन है

 "शिरोधार्य च सर्वे सामीप  सताम विश्व पावनी जीवन मुक्ता मुक्तिदायिनी चा भजेताम हरि भक्ति दान " 

जो सबके शिरोधार्य है, उपासया हैं, जीवन मुक्ता है, मुक्ति दायिनी है और श्री हरि की भक्ति प्रदान करने वाली हैं । वह समस्त विश्व को पवित्र करने वाली हैं , ऐसी समस्त विश्व को पवित्र करने वाली विश्व पावनी तुलसी देवी को मैं सादर प्रणाम करता हूं । समग्र वैदिक शास्त्रों के संकलन करने वाले तथा संपादक श्री व्यास देव तुलसी की महिमा करते हुए पद्मपुराण के सृष्टि खंड में कहते

"पूजन किर्तने ध्याने परोपने धारने कलो तुलसी ध्यते पापं स्वर्ग मोक्ष दादाती
उपदेशम दृश्य दृष्या स्यम आचरते पुनः
स याति परम अनुस्थनाम माधवसे के कनम" 

तुलसी देवी की पूजा, कीर्तन , ध्यान,  रोपण और धारण पाप को नाश करने वाला होता है और इससे परम गति प्राप्त होती है । जो व्यक्ति किसी अन्य को तुलसी द्वारा भगवान श्री हरि की अर्चना करने का उपदेश देता है और स्वयं भी अर्चना करता है वही वह श्री माधव के धाम में गमन करता है । केवल तुलसी देवी के नाम उच्चारण मात्र से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं और इसके परिणाम स्वरूप पाप समूह नष्ट हो जाता है और अक्षय पुण्य प्राप्त होता है । 
पदम् पुराण के ब्रह्म खंड में कहां गया है--
 "गंगाताम सरिता श्रेष्ठ: विष्णु ब्रह्मा महेश्वरा:
देव: तीर्थ पुष्करा तेश्थ्यम तुलसी दले"

गंगा आदि समस्त पवित्र नदी एवं ब्रह्मा विष्णु महेश्वर पुष्कर आदि समस्त तीर्थ सर्वथा तुलसी दल में विराजमान रहते हैं । ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि समस्त पृथ्वी में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ है वह तुलसी उद्विग्न के मूल में तीर्थ निवास करते हैं । तुलसी देवी की कृपा से भक्तवृंद कृष्ण भक्ति प्राप्त करते हैं और वृंदावन वास की योग्यता अर्जित करते हैं । वृंदा देवी तुलसी देवी समस्त विश्व को पावन करने में सक्षम है और सब के द्वारा ही पूज्य है । समस्त पुष्पों के मध्य वो सर्वश्रेष्ठ हैं और श्री हरि सारे देवता ब्राह्मण और वैष्णव गन का आनंद का वर्धन करने वाली हैं । वे अतुलनीय और कृष्ण की जीवन स्वरूपनी है । जो नित्य तुलसी सेवा करते हैं वह समस्त क्लेश से मुक्त होकर अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करते हैं । अतः श्रीहरि की अत्यंत प्रिय तुलसी को जल दान अवश्य करना चाहिए । इसके अलावा इस समय भगवान से अभिन्न प्रकाश श्री शालिग्राम शिला को भी जल दान की व्यवस्था की जाती है । शास्त्रों में तुलसी देवी को जल दान करने पर तुलसी के मूल में जो जल बच जाता है उसका भी विशेष महत्व वर्णित किया गया है । 
इस विषय में एक कहानी बताई गई है-  
एक समय एक वैष्णव तुलसी देवी को जल प्रदान कर और परिक्रमा करके घर वापस जा रहे थे कि कुछ समय पश्चात एक भूखा कुत्ता वहां आकर तुलसी देवी के मूल में पड़े हुए जल था उसको पीने लगा लेकिन तभी वहां एक बाघ आया और उसको कहने लगा दुस्त कुकुर तुम क्यों मेरे घर में खाना चोरी करने आए हो और चोरी भी करना ठीक है लेकिन मिट्टी का बर्तन क्यों तोड़ कर आए हो तुम्हारे लिए उचित दंड केवल मृत्युदंड है । इसके उपरांत बाग उस कुत्ते को वही मार देता है और तभी यमदूत के गण उस कुत्ते को लेने आते हैं।  लेकिन उसी समय विष्णु दूतगण वहां आते है और उनके रोकते है और कहते है यह कुत्ता पूर्व जन्म में जघन्य पाप करने के कारण नाना प्रकार के दंड पाने के योग्य हो गया था लेकिन केवल तुलसी के पौधे के मूल में पड़े जल का पान करने के फल से उसका समस्त पाप नष्ट हो चुका है और तो और वह विष्णु गमन करने की योग्यता अर्जित कर चुका है । अतः वह कुत्ता सुंदर रूप को प्राप्त करता है और वैकुंठ के दूत गणों के  साथ भगवद धाम गमन करता है ।
       जगत जीवो को कृपा करने के उद्देश्य से ही भगवान के अंतरंग शक्ति श्रीमती राधारानी का प्रकाश वृंदा तुलसी देवी के रूप में इस जगत में प्रकट हुआ है । उसी प्रकार भगवान श्री हरि भी बध जीवो को माया के बंधन से मुक्त करने के लिए विचित्र लीला के माध्यम से अपने अभिन्न स्वरुप शालिग्राम शिला रूप में प्रकाशित हुए हैं । चारों वेदों के अध्ययन से लोगों को जो फल प्राप्त होता है केवल शालिग्राम शिला के अर्चना करने मात्र से ही वह पूर्ण फल प्राप्त किया जाना संभव है । जो शालिग्राम शिला के स्नान जल , चरणामृत आदि को नित्य पान करते हैं वह महा पवित्र होते हैं एवं जीवन के अंत में भगवद धाम गमन करते हैं ।
बैसाख स्नान के नियम----
वैशाख मास के देवता भगवान मधुसूदन हैं। बैशाख स्नान करने वाले साधक को यह प्रतिज्ञा लेनी चाहिए – “हे मधुसूदन! हे देवेश्वर माधव! मैं वैशाख के महीने में सुबह स्नान करूंगा जब सूर्य मेष राशि में स्थित होगा, तो आप इसे पूरा कर लेंगे। यह महीना संयम का महीना है। , अहिंसा, आध्यात्मिकता, आत्म-शिक्षा और सार्वजनिक सेवा। प्रपत्र को ध्यान से देखा जाना चाहिए।

जाने ओर समझें होलाष्टक में क्या करें, क्या ना करें

इस वर्ष 2 मार्च, 2020 से आरम्भ हुआ होलाष्टक 9 मार्च 2020 को समाप्त होगा। 8 दिनों तक चलने वाले होलाष्टक को अशुभ माना गया है। होली से पहले आठ दिनों तक चलने वाला होलाष्टक इस वर्ष 2 मार्च 2020 से शुरू हो चुका है। हिंदू धर्म में होलाष्टक के दिनों को अशुभ माना गया है। होलाष्टक की शुरुआत फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से होती है।होलाष्टक में दो शब्दों का योग है। होली और अष्टक यहां पर होलाष्टक का अर्थ है होली से पहले के आठ दिन। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक होलाष्टक रहते हैं। हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को होलिका दहन किया जाता है और अगले दिन चैत्रकृष्ण प्रतिपदा में रंग खेला जाता है। होलाष्टक के दिन से ही होलिका दहन के लिए लकड़ियां रखी जाती है। जिस जगह होलिका दहन होगा उस जगह होली की लकड़ियां रखना शुरू होता है। भारत में कई जगह रंग को धुल्हैंडी भी कहा जाता है। इसका समापन फाल्गुन की पूर्णिमा को होता है और इसी दिन होलिका दहन की परंपरा है। इस साल 2 मार्च, 2020 से लगने वाला होलाष्टक 9 मार्च को खत्म होगा। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या फाल्गुनी नाम से मनाया जाता है । इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा जाता  है।  
    फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सायंकाल शुभ मुहूर्त में अग्निदेव की शीतलता एवं स्वयं की रक्षा के लिए उनकी पूजा करके होलिका दहन किया जाता है।  देश के कई हिस्सों में होलाष्टक शुरू होने पर एक पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े काटकर बांध देते हैं और उसे जमीन में गाड़ते हैं। इसे भक्त प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है। इसी के नीचे होलिकोत्सव मनाया जाता है।  सत्ययुग में हिरण्यकशिपु, जो पहले विष्णु जी का जय नाम का पार्षद था और शाप के कारण दैत्य के रूप में जन्म लिया था, ने घोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान पा लिया। वरदान के अहंकार में उसने देवताओं सहित सबको हरा दिया। उधर विष्णु जी ने अपने भक्त के उद्धार के लिए अपना अंश उसकी पत्नी कयाधू के गर्भ में पहले ही स्थापित कर दिया। प्रह्लाद जन्म से ही नारद जी की कृपा से ब्रह्मज्ञानी हो गए थे।एक पौराणिक कथा के अनुसार प्रह्लाद की भक्ति से नाराज होकर हिरण्यकश्यप ने होली से पहले के आठ दिनों में उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट और यातनाएं दीं। इसलिए इसे अशुभ माना गया है।
Know-and-understand-what-to-do-in-Holashtak-Holi-2020- जाने ओर समझें होलाष्टक में क्या करें, क्या ना करें , होली- 2020     प्रह्लाद का विष्णु भक्त होना उनके पिता हिरण्यकशिपु को अच्छा नहीं लगता था। अन्य बच्चों पर विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता देख, प्रह्लाद को भक्ति से रोकने के लिए हिरण्यकशिपु ने फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी को उन्हें बंदी बना लिया। जान से मारने के लिए तरह-तरह की यातनाएं दीं, लेकिन प्रह्लाद भयभीत नहीं हुए। विष्णु कृपा से हर बार बच गए। इसी प्रकार सात दिन बीत गए। अपने भाई हिरण्यकशिपु की परेशानी देख आठवें दिन उसकी बहन होलिका, जिसे ब्रह्मा जी ने अग्नि से न जलने का वरदान दिया था, अपने भतीजे प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठाकर अग्नि में प्रवेश कर गई। देवकृपा से वह स्वयं ही जल मरी, प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु का वध किया। तभी से भक्ति पर आए इस संकट के कारण, इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है। एक अन्य कथा अनुसार, इन्हीं होलाष्टक के दिनों में भगवान शिव ने कामदेव को भी भस्म किया था।
होली की परंपराएँ---
होली की परंपराएँ बहुत ही प्राचीन हैं परन्तु समय के अनुसार होली खेलने के तरीका में भी परिवर्तन हुआ है। प्राचीन काल में महिलाये इस दिन पूर्ण चंद्र की पूजा करके अपने परिवार की सुख समृद्धि की कामना करती थी। इस दिन अधपके फसल को तोड़कर होलिका दहन के दिन होलिका में प्रसाद रूप में चढाकर पुनः प्रसाद खाने का का भी विधान है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष  का  भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी बताते हरण की यह पर्व अधिकांशतः यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, नारद पुराण, भविष्य पुराण, पूर्व मीमांसा-सूत्र, कथा गार्ह्य-सूत्र आदि  ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ के एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख मिला है।
    मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन जग जाहिर है। इसके आलावा प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव के चित्र मिलते हैं। चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है। 17वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ रंग खेलते हुए दिखाया गया है।
समझें क्यों नही करने चाहिए होलाष्टक में शुभ कार्य---
होलाष्टक में शुभ कार्य न करने की ज्योतिषीय वजह यह है कि इन दिनों वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव बहुत अधिक रहता है। होलाष्टक अष्टमी तिथि से आरंभ होता है। अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक अलग-अलग ग्रहों का प्रभाव बहुत अधिक रहता है। जिस कारण इन दिनों में शुभ कार्य न करने की सलाह दी जाती है। ज्योतिषाचार्य पण्डित दयानन्द शास्त्री जी ने बताया की इन 8 दिनों में ग्रह अपने स्थान में बदलाव करते हैं। इसी वजह से ग्रहों के चलते इस अशुभ समय के दौरान किसी भी तरह का शुभ कार्य नहीं किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य करने से व्यक्ति के जीवन में कष्ट, दर्द का प्रवेश होता है। अगर इस समय में कोई विवाह कर ले तो भविष्य में कलह का शिकार या संबंधों में टूट पड़ सकती है। इनमें अष्टमी तिथि को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चुतर्दशी को मंगल तो पूर्णिमा को राहू की ऊर्जा काफी नकारात्मक रहती है।  इसी कारण यह भी कहा जाता है कि इन दिनों में जातकों के निर्णय लेने की क्षमता काफी कमजोर होती है जिससे वे कई बार गलत निर्णय भी कर लेते हैं जिससे हानि होती है।
जानिए क्या कहते हैं वेद पुराण होलाष्टक के सम्बंध में --
होलाष्टक दोष का उल्लेख ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत मुहूर्त शाखा के ग्रन्थों में मिलता है। होलाष्टक दोष का विषय अति सरल व संक्षिप्त है। इस सम्बन्ध में मात्र दो ही श्लोक हैं। एक श्लोक में यह बताया गया है कि होलाष्टक दोष कब से प्रारम्भ होता है? तथा दूसरे श्लोक में यह स्पष्ट किया गया है कि यह दोष किन-किन स्थानों में लागू होता है?

इस सम्बन्ध में शास्त्र प्रमाण देखें - 
मुहूर्त चिन्तामणि पीयूषधारा संस्कृत टीका शुभाशुभप्रकरण श्लोक सं. 40 की टीका पृष्ठ 34 में लिखा है कि

‘‘शुक्लाष्टमीसमारभ्य फाल्गुनस्य दिनाष्टकम्।    
 पूर्णिमावधिकं व्याज्यं होलाष्टकमिदं शुभे।।’’  (शीघ्रबोध श्लोक सं. 137)
‘‘शुतुद्रयां च विपाशायामैरावत्यां त्रिपुष्करे।
 होलाष्टकं विवाहावौत्याज्यमन्यत्र शोभनम्’’       (शीघ्रबोध श्लोक सं. 138)

उपरोक्त प्रमाण श्लोकों की विस्तृत व्याख्या मुहूत्र्त चिन्तामणि के सुप्रसिद्ध टीकाकार श्री कपिलेश्वर झा जी ने अपनी हिन्दी टीका में इस प्रकार लिखा है। सतलज (शुतुद्री), विपाशा (व्यास), इरावती (रावी) नदियों के तटवर्ती क्षेत्र और त्रिपुष्कर (पुष्कर) क्षेत्र में फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा से आठ दिन पहले होलाष्टक के कारण विवाहादि शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। इनसे भिन्न स्थानों में ही विवाहादि कार्य करना चाहिए। यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि व्यास, सतलज, इरावती, नदियाँ पंजाब प्रान्त में हैं। व्यास नदी के किनारे होशियारपुर, गुरूदासपुर, मण्डी, काँगड़ा, सुलतान, कपूरथला तथा इरावती (रावी) नदी के किनारे मुलतान, मांतगोमट्टी -लाहौर, अमृतसर, पठानकोट जबकि सतलज नदी के किनारे जालन्धर, लुधियाना, पटियाला, भावलपुर शहर हैं। त्रिपुष्कर क्षेत्र जिसे वर्तमान में पुष्कर कहा जाता है, वह राजस्थान के अजमेर में है। इन्हीं शहरों के समीपवर्ती भू-भाग में होलाष्टक दोष लगता है एवं विवाहादि कार्य वर्जित हैं। इनके अतिरिक्त देश के शेष भूभाग में विवाह प्रतिष्ठादि शुभ मांगलिक कार्य सम्पन्न होंगे। मुहूर्त चिन्तामणि व मुहूर्त गणपति प्रामाणिक ग्रन्थों में देशवश ही होलाष्टक दोष के त्याग करने का शास्त्रादेश है। 
प्रमाण देखिए -
‘‘विपाशैरावतीतीरे शुतुद्रयाश्च त्रिपुष्करे।
 विवाहादिशुभे नेष्टं होलिकाप्राग्दिनाष्टकम्।।’’  (मुहूत्र्तचिन्तामणि श्लोक सं. 40)
‘‘ऐरावत्यां विपाशायां शतद्रौ पुष्करत्रये।
 होलिका प्राग्दिनान्यष्टौ विवाहादौ शुभे त्यजेत्।।’’  (मुहूत्र्तगणपति श्लोक सं. 204)

विपाशा (व्यास), इरावती (रावी), शुतुद्री (सतलज) नदियों के निकटवर्ती दोनों ओर स्थित नगर, ग्राम, क्षेत्र में तथा त्रिपुष्कर (पुष्कर) क्षेत्र में होलाष्टक दोष फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा (होलिका दहन) तिथि के पहले के आठ दिन में विवाह, यज्ञोपवीत आदि शुभ कार्य वर्जित हैं। इस प्रकार लगभग सम्पूर्ण पंजाब प्रान्त में हिमांचल प्रदेश का कुछ भू-भाग तथा राजस्थान में अजमेर (पुष्कर) के समीपवर्ती आसपास के स्थानों (सम्पूर्ण राजस्थान नहीं) में ही विशेष सावधानी के लिए होलाष्टक दोष को मानना शास्त्र सम्मत है। देश के अन्य शेष भू-भागों में होलाष्टक दोष विचार का नियम लागू नहीं करना चाहिए, ऐसा शास्त्र सम्मत निर्णय है। उपरोक्त होलाष्टक दोष के सम्बन्ध में अनेक परम्परागत ज्योतिषी व कर्मकाण्डी पुरोहित जिन्हें इस विषय की सुस्पष्ट जानकारी नहीं है, वे देश के विशाल भू-भाग जिन प्रदेशों में इसका दोष लागू नहीं होता है, वहाँ पर भी होलाष्टक दोष का भय दिखाकर अबोध जनता के शुभकार्यों में अनावश्यक रूप से बाधा उत्पन्न कर देते हैं। शास्त्र वचनों के एक भाग को मानना व दूसरे भाग को न मानना विद्वान मनुष्यों का लक्षण कदापि नहीं हो सकता है। इस सम्बन्ध में काशी (वाराणसी) के समस्त पंचागकार बहुत ही स्पष्ट रूप से होलाष्टक के सम्बन्ध में उपर्युक्त प्रमाण श्लोक प्राचीन काल से लिखते चले आ रहे हैं। किन्तु इसके बावजूद कुछ पंडित लोग आज भी वर्तमान समय में होलाष्टक दोष के वास्तविक स्वरूप से अज्ञात होने के कारण स्पष्ट जानकारी के अभाव में समाज को भ्रमित करने का महाशास्त्रीय अपराध करते चले आ रहे हैं।इसी भ्रान्ति के निवारण हेतु काशी के सुप्रसिद्ध पंचांगकार श्रीगणेश आपा जी ने संवत् 2070 (सन् 2013-14) के पंचांग में एवं संवत् 2074 (सन् 2017-18) ई. के अपने पंचांग में फाल्गुन शुक्ल पक्ष में स्पष्ट निर्णय देकर भ्रान्ति निवारण हेतु जन उपयोगी अति महत्त्वपूर्ण सराहनीय कार्य किया है। 
       श्री गणेश आपा जी पंचांग में स्पष्ट निर्णय दिया गया है कि होलाष्टक दोष किन स्थानों पर होता है? पंजाब प्रान्त पुष्कर (अजमेर)  विपाशा (व्यास) इरावती (रावी) शतदु्रम (सतलज) नदियों के तट पर स्थित (धवलपुर, लुधियाना, फिरोजपुर, गुरूदासपुर, होशियारपुर, कांगड़ा, कपूरथला........) आदि में होलाष्टक दोष होता है। होलाष्टक दोष केवल विवाह के लिये है, अन्य शुभ कार्यों के लिए नहीं है। अन्य प्रान्तों में होलाष्टक का कोई दोष नहीं होता है। इन्हीं प्रमाणों के आधार पर ही काशी (वाराणसी) के सभी पंचांगों में होलाष्टक के काल समय में भी विवाह मुहूत्र्त दिये जाते हैं । होलाष्टक दोष के सम्बन्ध में एक बात और भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि जिन स्थानों में होलाष्टक दोष लागू होता है, उन क्षेत्रों में भी विवाह संस्कार के अतिरिक्त छोटे-बडे़ सभी शुभ मांगलिक कार्य जैसे - गृहारम्भ, गृहप्रवेश, मन्दिर देव प्रतिष्ठा-स्थापना, यज्ञादि कार्य, द्विरागमन, वधु प्रवेश, व्यापार आरम्भ, क्रय-विक्रय, कथा पुराण (भागवतादिश्रवण), ग्रह शांति, मंत्र-जप-अनुष्ठान, नवीन कार्य प्रारम्भ, समस्त संस्कार (विवाह पाणिग्रहण संस्कार को छोड़कर) आदि समस्त शुभ कार्य निर्बाध रूप से सम्पन्न होंगे। देश के अन्य क्षेत्रों में जहाँ पर होलाष्टक दोष शास्त्रोक्त प्रमाण से लागू नहीं होता है, उन प्रदेशों में विवाह सम्बन्धी शुभकार्य के साथ ही समस्त शुभकार्य बिना किसी रोक-टोक के निश्चित रूप से सम्पन्न करने चाहिए।
होलाष्टक के दौरान करें ये विशेष पूजा---
  • 1. होलाष्टक के दिनों को भक्तों को लड्डू गोपाल की पूजा विधि विधान से करनी चाहिए। पूजा के दौरान गाय के शुद्ध घी और मिश्री से हवन करना चाहिए। इस विधि से संतान प्राप्ति के योग बनते हैं।
  • 2. होलाष्टक में जौ, तिल और शक्कर से हवन करने से आपको अपने करियर में तरक्की मिलेगी।
  • 3. होलाष्टक के दिनों में कनेर के फूल, गांठ वाली हल्दी, पीली सरसों और गुड़ से हवन करने से धन-संपत्ति में वृद्धि के योग बनते हैं।
  • 4. इसी के साथ ही अगर आप होलाष्टक के दिनों में भगवान शिव का महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हैं तो आपके स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है। इससे शरीर के सभी रोग दूर होते हैं।

होलाष्टक में नकारात्मकता का प्रभाव---
हिंदू धर्म ग्रंथों और पौराणिक मान्यताओं के आधार पर बताया जाता है कि होलाष्टक के समय में भक्त प्रह्लाद को अनेक प्रकार की यातनाएं दी गई थीं, इसलिए इस 8 दिनों के समय को नकारात्मकता वाला माना जाता है। इसी के चलते इन दिनों में किसी तरह के मांगलिक कार्य से दूर रहा जाता है।
होलाष्टक में करें भगवान की वंदना---
होलाष्टक के आठ दिनों के बीच आपको भगवान का भजन, जप, तप आदि करना चाहिए। कहा जाता है इन दिनों में भक्त प्रह्लाद पर कष्टों की बौछार की गई। जिसके चलते उनके काफी कष्ट हुआ। वहीं इन दिनों भगवान विष्णु या फिर अपने इष्टदेव की आराधना करनी चाहिए। जिस प्रकार भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद के सभी संकटों का निवारण किया था, ठीक वैसे ही भगवान आपके कष्टों को भी दूर करेंगे।
होलाष्टक में भूलकर भी नहीं करने चाहिए ये काम ---
  1. शादी: ये किसी के भी जीवन के सबसे महत्वपूर्ण लम्हों में से एक होता है। यह वो मौका होता है जब आप किसी के साथ पूरा जीवन व्यतीत करने के वादे करते हैं। यहां से जिंदगी का एक अलग पन्ना भी शुरू होता है। इसलिए शादी को बहुत ही शुभ माना गया है। यही कारण है कि हिंदू धर्म मे होलाष्टक में विवाह की मनाही है।  अत: इन दिनों में विवाह का कार्यक्रम नहीं किया जाना चाहिए। 
  2. नामकरण संस्कार: किसी नवजात बच्चे के नामकरण संस्कार को भी होलाष्टक में नहीं किया जाना चाहिए। हमारा नाम ही पूरे जीवन के लिए हमारी पहचान बनता है। नाम का असर भी हमारे जीवन पर अत्यधिक पड़ता है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि इसे शुभ काल में किया जाए।
  3. विद्या आरंभ: बच्चों की शिक्षा की शुरुआत भी इस काल में नहीं की जानी चाहिए। शिक्षा किसी के भी जीवन के सबसे शुभ कार्यों में से एक है। इसलिए जरूरी है कि जब अपने बच्चे को किसी गुरु के देखरेख में दिया जाए तो वह शुभ काल हो। इससे बच्चे की शिक्षा को लेकर अच्छा असर होता है और तेजस्वी बनता है। 
  4. संपत्ति की खरीद-बिक्री: ये कार्य भी होलाष्टक काल में नहीं किया जाना चाहिए। इससे अशांति का माहौल बनता है। संभव है कि आपने जो संपत्ति खरीदी या बेची है, वह बाद में आपके लिए परेशानी का सबब बन जाए। इसलिए कुछ दिन रूककर और होलाष्टक खत्म होने के बाद ही इन कार्यों को हाथ लगाएं। 
  5. नया व्यापार और नई नौकरी: आप नया व्यापार शुरू करना चाहते हैं या फिर कोई नई नौकरी ज्वाइन करना चाहते हैं तो बेहतर है इन दिनों में इसे टाल दें। आज की दुनिया में व्यवसाय या नौकरी किसी के भी अच्छे जीवन का आधार है। इसलिए होलाष्टक के बाद इन कार्यों को करें। इससे सकारात्मक ऊर्जा आपके साथ रहेगी और आप सफलता हासिल कर सकेंगे।
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